कुंती - पठन सामग्री और सार NCERT Class 7th Hindi बाल महाभारत कथा
सार
श्रीकृष्ण के पितामह शूरसेन यदुवंश के प्रसिद्ध राजा थे, जिनकी कन्या का नाम पृथा था। शूरसेन के फुफरे भाई कुंतिभोज की कोई संतान नहीं थी। शूरसेन ने अपने वचन अनुसार अपनी पहली संतान, पृथा को कुंतिभोज को गोद दे दिया। पृथा का नाम कुंती हो गया।
कुंती के बचपन में उनके घर ऋषि दुर्वासा आए। कुंती ने एक वर्ष तक उनकी बहुत सेवा की। ऋषि ने प्रसन्न होकर कुंती को वरदान दिया कि वह जिस देवता का ध्यान करेंगी, वह अपने ही समान तेजस्वी पुत्र प्रदान करेगा। कुंती ने सूर्य का ध्यान किया और उन्होंने सूर्य के समान तेजस्वी और सुंदर बालक को जन्म दिया जो जन्म से ही कवच और कुंडलों से शोभित था। यह बालक बाद में चलकर कर्ण के नाम से प्रसिद्द हुआ। कुंती ने लोकनिंदा के भय से बच्चे को एक पेटी में बन्द कर उसे गंगा के धारा में बहा दिया। अधिरथ नाम के एक सारथी ने उस पेटी को निकाला और चूँकि वह निःसंतान था इसलिए उस बच्चे को पालने लगा।
कुंती विवाह योग्य हो गयी। राजा कुंतिभोज ने विवाह के लिए स्वयंवर रचा जिसमें देश-विदेश के कई महराजाओं ने भाग लिया। हस्तिनापुर के महाराज पांडु ने भी हिस्सा लिया। कुंती ने वरमाला उन्हीं के गले में डाली। दोनों का विवाह हो गया। चूँकि उन दिनों राजवंशों में एक से ज्यादा विवाह का प्रचलन था इसलिए पितामह भीष्म की सलाह से महाराज पांडु ने मद्रराज की कन्या माद्री से भी विवाह किया।
एक दिन पांडु शिकार खेलने वन गए। उसी जंगल में एक ऋषि दम्पत्ति भी हिरण के रूप में भ्रमण कर रह थे। अज्ञानता के कारण पांडु ने हिरण बने ऋषि दम्पत्ति को अपने तीर से मार गिराया। ऋषि मरते-मरते पांडु को शाप दिया जिसके कारण वो कभी पिता नहीं बन सकते थे। ऋषि के शाप से पांडु को दुःख हुआ और उन्होंने राज्य का भार विदुर और भीष्म पितामह को सौंप कर, अपनी पत्नियाँ कुंती और माद्री के साथ वन में रहने लगे।
कुंती ने जब देखा कि महाराज पांडु को संतान की इच्छा है तो उन्होंने पांडु को दुर्वासा दिए वरदान के बारे में बताया। कुंती और माद्री ने देवताओं का ध्यान कर पाँचों पांडवों को जन्म दिया।
एक दिन वसंत ऋतू में पांडु माद्री के साथ वनविहार का आनंद ले रहे थे तभी शाप का असर हुआ और पांडु की मृत्यु हो गयी। माद्री ने अपने पति के मृत्यु का कारण खुद का समझा और पांडु के साथ वह भी मर गयी। इस घटना से कुंती और पांडवों को बहुत दुःख हुआ परन्तु ऋषियों के समझाने पर वे लोग भीष्म पितामह के शरण में हस्तिनापुर आ गए। उस समय युधिष्ठर की उम्र सोलह वर्ष थी।
सत्यवती ने जब अपने पोते की मृत्यु की खबर सुनी तो वे बहुत दुःखी हुईं और अपने दोनों पुत्रवधुओं के साथ वन चलीं गयीं और बाद में वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।
पाठ सूची में वापिस जाएँ
कुंती के बचपन में उनके घर ऋषि दुर्वासा आए। कुंती ने एक वर्ष तक उनकी बहुत सेवा की। ऋषि ने प्रसन्न होकर कुंती को वरदान दिया कि वह जिस देवता का ध्यान करेंगी, वह अपने ही समान तेजस्वी पुत्र प्रदान करेगा। कुंती ने सूर्य का ध्यान किया और उन्होंने सूर्य के समान तेजस्वी और सुंदर बालक को जन्म दिया जो जन्म से ही कवच और कुंडलों से शोभित था। यह बालक बाद में चलकर कर्ण के नाम से प्रसिद्द हुआ। कुंती ने लोकनिंदा के भय से बच्चे को एक पेटी में बन्द कर उसे गंगा के धारा में बहा दिया। अधिरथ नाम के एक सारथी ने उस पेटी को निकाला और चूँकि वह निःसंतान था इसलिए उस बच्चे को पालने लगा।
कुंती विवाह योग्य हो गयी। राजा कुंतिभोज ने विवाह के लिए स्वयंवर रचा जिसमें देश-विदेश के कई महराजाओं ने भाग लिया। हस्तिनापुर के महाराज पांडु ने भी हिस्सा लिया। कुंती ने वरमाला उन्हीं के गले में डाली। दोनों का विवाह हो गया। चूँकि उन दिनों राजवंशों में एक से ज्यादा विवाह का प्रचलन था इसलिए पितामह भीष्म की सलाह से महाराज पांडु ने मद्रराज की कन्या माद्री से भी विवाह किया।
एक दिन पांडु शिकार खेलने वन गए। उसी जंगल में एक ऋषि दम्पत्ति भी हिरण के रूप में भ्रमण कर रह थे। अज्ञानता के कारण पांडु ने हिरण बने ऋषि दम्पत्ति को अपने तीर से मार गिराया। ऋषि मरते-मरते पांडु को शाप दिया जिसके कारण वो कभी पिता नहीं बन सकते थे। ऋषि के शाप से पांडु को दुःख हुआ और उन्होंने राज्य का भार विदुर और भीष्म पितामह को सौंप कर, अपनी पत्नियाँ कुंती और माद्री के साथ वन में रहने लगे।
कुंती ने जब देखा कि महाराज पांडु को संतान की इच्छा है तो उन्होंने पांडु को दुर्वासा दिए वरदान के बारे में बताया। कुंती और माद्री ने देवताओं का ध्यान कर पाँचों पांडवों को जन्म दिया।
एक दिन वसंत ऋतू में पांडु माद्री के साथ वनविहार का आनंद ले रहे थे तभी शाप का असर हुआ और पांडु की मृत्यु हो गयी। माद्री ने अपने पति के मृत्यु का कारण खुद का समझा और पांडु के साथ वह भी मर गयी। इस घटना से कुंती और पांडवों को बहुत दुःख हुआ परन्तु ऋषियों के समझाने पर वे लोग भीष्म पितामह के शरण में हस्तिनापुर आ गए। उस समय युधिष्ठर की उम्र सोलह वर्ष थी।
सत्यवती ने जब अपने पोते की मृत्यु की खबर सुनी तो वे बहुत दुःखी हुईं और अपने दोनों पुत्रवधुओं के साथ वन चलीं गयीं और बाद में वहीं मृत्यु को प्राप्त हो गयीं।
पाठ सूची में वापिस जाएँ