MCQ and Summary for जनतंत्र का जन्म (Jantantra ka Janm) Class 10 Hindi Godhuli Part 2 Bihar Board
जनतंत्र का जन्म - रामधारी सिंह दिनकर MCQ and सारांश
Multiple Choice Question Solutions (बहुविकल्पी प्रश्न)
1. 'जनतंत्र का जन्म' के कवि कौन हैं ?
(A) कुँवर नारायण
(B) रामधारी सिंह दिनकर
(C) प्रेमधन
(D) सुमित्रानंदन पंत
उत्तर
(B) रामधारी सिंह दिनकर
2. दिनकर के काव्य का मूल स्वर क्या है ?
(A) ओज एवं राष्ट्रीय चेतना
(B) श्रृंगार
(C) प्रकृति और सौंदर्य
(D) रहस्यवाद
उत्तर
(A) ओज एवं राष्ट्रीय चेतना
3. जनतंत्र में कवि के अनुसार राजदण्ड क्या होंगे ?
(A) ढाल और तलवार
(B) फूल और भौरे
(C) फावड़े और हल
(D) बाघ और भालू
उत्तर
(C) फावड़े और हल
4. कवि के अनुसार जनतंत्र के देवता कौन हैं ?
(A) नेता
(B) शिक्षक
(C) किसान-मजदूर
(D) मंत्री
उत्तर
(C) किसान-मजदूर
5. भारत सरकार ने दिनकर को कौन-सा अलंकरण प्रदान किया ?
(A) पद्म श्री
(B) भारत रत्न
(C) अशोक चक्र
(D) पद्म विभूषण
उत्तर
(D) पद्म विभूषण
6. भारत में जनतंत्र की स्थापना कब हुई ?
(A) 1947 ई.
(B) 1977 ई.
(C) 1950 ई.
(D) 1967 ई.
उत्तर
(C) 1950 ई.
7. भाषा सम्राट निम्नलिखित में किसे कहा जाता है ?
(A) रामधारी सिंह दिनकर को
(B) सुमित्रानंदन पंत को
(C) सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को
(D) सभी गलत हैं
उत्तर
(A) रामधारी सिंह दिनकर को
8. सिमरिया घाट का संबंध है।
(A) पंत से
(B) दिनकर से
(C) गाँधी से
(D) जय प्रकाश से
उत्तर
(B) दिनकर से
9. 'जनतंत्र का जन्म' किसके द्वारा रचित है?
(A) दिनकर
(B) पंत
(C) नागार्जुन
(D) विद्यापति
उत्तर
(A) दिनकर
10. कवि ने किसके लिए सिंहासन खाली करने का आह्वान किया है ?
(A) राजा हेतु
(B) धनवान के लिए
(C) रंक हेतु
(D) जनता के लिए
उत्तर
(D) जनता के लिए
11. समय की धारा को बदल देने की क्षमता किसमें होती है?
(A) देश में
(B) जनता में
(C) विदेश में
(D) संतों में
उत्तर
(B) जनता में
12. जनतंत्र में स्वामी कौन है?
(A) राजा
(B) रानी
(C) प्रजा (जनता)
(D) राजपुत्र
उत्तर
(C) प्रजा (जनता)
13. अब जनता की भृकुटी टेढ़ी होती हैं तब क्या होता है?
(A) दर्द शुरू होता है
(B) खुशी की लहर दौड़ने लगती है
(C) क्रांति का आरंभ हो जाता है
(D) सभी गलत हैं
उत्तर
(C) क्रांति का आरंभ हो जाता है
14. ओज एवं राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रदान करने वाले कवि है
(A) पंत
(B) तुलसी
(C) कबीर
(D) दिनकर
उत्तर
(D) दिनकर
15. जनतंत्र का दूसरा नाम है
(A) राजतंत्र
(B) सामंतवाद
(C) पूँजीवाद
(D) प्रजातंत्र
उत्तर
(D) प्रजातंत्र
16. दिनकर की किस कृति के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है ?
(A) रश्मिरथी
(B) संस्कृति के चार
(C) उर्वशी
(D) रेणुका
उत्तर
(C) उर्वशी
17. मिट्टी की अबोध मूरतें कौन हैं ?
(A) नेता
(B) जनता
(C) अधिकारी
(D) मंत्री
उत्तर
(B) जनता
जनतंत्र का जन्म- लेखक परिचय
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 23 सितंबर 1908 ई० में सिमरिया, बेगूसराय (बिहार) में हुआ और निधन 24 अप्रैल 1974 ई० में । उनकी मां का नाम मनरूप देवी और पिता का नाम रवि सिंह था । दिनकर जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव और उसके आस-पास हुई । 1928 ई० में उन्होंने मोकामा घाट रेलवे हाई स्कूल से मैट्रिक और 1932 ई० में पटना कॉलेज से इतिहास में बी० ए० ऑनर्स किया । वे एच० ई० स्कूल, बरबीघा में प्रधानाध्यापक, जनसंपर्क विभाग में सब-रजिस्ट्रार और सब-डायरेक्टर, बिहार विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफेसर एवं
भागलपुर विश्वविद्यालय में उपकुलपति के पद पर रहे।
दिनकर जी जितने बड़े कवि थे, उतने ही समर्थ गद्यकार भी । उनकी भाषा कुछ भी छिपाती – नहीं, सबकुछ उजागर कर देती है । उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं – ‘प्रणभंग’ ‘रेणका’ ‘हंकार’ ‘रसवंती’, ‘कुरुक्षेत्र’, रश्मिरथी’, ‘नीलकुसुम’, ‘उर्वशी’, ‘परशुराम की प्रतीक्षा’, ‘हारे को हरिनाम’ आदि । (काव्य-कृतियाँ) एवं ‘मिट्टी की ओर’, ‘अर्धनारीश्वर’, ‘संस्कृति के चार अध्याय’, ‘काव्य की भूमिका’, ‘वट पीपल’, ‘शुद्ध कविता की खोज’, ‘दिनकर की डायरी’ आदि (गद्य कृतियाँ) । दिनकर जी को ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पर साहित्य अकादमी एवं ‘उर्वशी’ पर ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुए। उन्हें भारत सरकार की ओर से ‘पद्मविभूषण’ से भी सम्मानित किया गया था। वे राज्यसभा के सांसद भी रहे।
दिनकर जी उत्तर छायावाद के प्रमुख कवि हैं । वें भारतेन्दु युग से प्रवहमान राष्ट्रीय भावध रा के एक महत्त्वपूर्ण आधुनिक कवि हैं। कविता लिखने की शुरुआत उन्होंने तीस के दशक में ही कर दी थी, किंतु अपनी संवेदना और भावबोध से वे चौथे दशक के प्रमुख कवि के रूप में ही पहचाने गये। उन्होंने प्रबंध, मुक्तक, गीत-प्रगीत, काव्यनाटक आदि अनेक काव्यशैलियों में सफलतापूर्वक उत्कृष्ट रचनायें प्रस्तुत की हैं। प्रबंधकाव्य के क्षेत्र में छायावाद के बाद के कवियों में उनकी उपलब्धियाँ सबसे अधिक और उत्कृष्ट हैं। भारतीय और पाश्चात्य साहित्य का उनका अध्ययन-अनुशीलन विस्तृत एवं गंभीर है । उनमें इतिहास और सांस्कृतिक परंपरा की गहरी चेतना है और समाज, राजनीति, दर्शन का वैश्विक परिप्रेक्ष्य-बोध है जो उनके साहित्य में अनेक स्तरों पर व्यक्त होता है।
राष्ट्रकवि दिनकर-की प्रस्तुत कविता आधुनिक भारत में जनतंत्र के उदय का जयघोष है। सदियों की देशी-विदेशी पराधीनताओं के बाद.स्वतंत्रता प्राप्ति हुई और भारत में जनतंत्र की प्राण-प्रतिष्ठा हुई । जनतंत्र के ऐतिहासिक और राजनीतिक अभिप्रायों को कविता में उजागर करते हुए कवि यहाँ एक नवीन भारत का शिलान्यास सा करता है जिसमें जनता ही स्वयं सिंहासन पर आरूढ़ होने को है । इस कविता का ऐतिहासिक महत्त्व है।
जनतंत्र का जन्म का सारांश (Summary)
सदियों की ठंठी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है,
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
व्याख्या-
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के जनतंत्र का जन्म काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन काव्य पंक्तियों के द्वारा कवि दिनकर ने कहा है कि सदियों की ठंढी और बुझी हुई राख में सुगबुगाहट दिखायी पड़ रही है कहने का भाव यह है कि क्रांतिकारी की चिनगारी अब भी अपनी गरमी के साथ प्रज्ज्वलित रूप ले रही है। मिट्टी यानी जनता सोने का ताज पहनने के लिए आकुल-व्याकुल है। राह छोड़ो, समय साक्षी है -जनता के रथ के पहियों की घर्घर आवाज साफ सुनायी पड़ रही है। अरे शोषकों! अब भी चंतो और सिंहासन खाली करो—देखो, जनता आ रही है।
उन पंक्तियों के द्वारा आधुनिक भारतीय लोकतंत्र की व्याख्या करते हुए जनता के महत्व को कवि ने रेखांकित किया है। कवि जनता को ही लोकतंत्र के लिए सर्वोपरि मानता है। वह जन प्रतिनिधियों से चलनेवाले लोकतंत्र की विशेषताओं का वर्णन करता है। सदियों से पीड़ित, शोषित, दमित जनता के सुलगते-उभरते क्रांतिकारी विचारों तथा भावनाओं से सबको अवगत कराते हुए सचेत किया है। उसने उसे नमन करने और समय-चक्र को समझने के लिए विवश किया है।
जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसम सदा सहनेवाली,
जब अंग-अंग में लगे साँप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली।
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक जनतंत्र का जन्म काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन काव्य पंक्तियों के द्वारा कवि दिनकर ने जनता की प्रशंसा में काव्य-रचना किया है। कवि कहता है कि जनता सचमुच में मिट्टी की अबोध मूरतें ही हैं। जनता की पीड़ा व्यक्त नहीं की जा सकती। वह जाड़े की रात में जाड़ा-पाला को सामान्य ढंग से जीते हुए जीती है उसकी कसक को वह हिम्मत के साथ सह लेती है।
तनिक भी आह नहीं करती। ठंढ से कंपकपाता शरीर, लगता है कि हजारों साँप डंस रहे हैं, कितनी पीड़ा व्यथा को सहकर वह जीती है, इसकी कल्पना नहीं की जा सकती। इतनी पीड़ा, दुःख को सहकर भी वह अपनी व्यथा कभी व्यक्त नहीं करती। कवि ने जनता की हिम्मत और कष्ट सहने की आदत को कितनी मार्मिकता के साथ व्यक्त किया है।
इन पंक्तियों के द्वारा कवि ने भारतीय जनजीवन की आर्थिक विपन्नता और मानसिक पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। उसने भारत की गरीबी, बेकारी, अभावग्रस्तता का सटीक वर्णन किया है। उसकी यानी जनता की बेबसी, बेकारी, लाचारी और शारीरिक पीड़ा, भोजन-वस्त्र, आवास की कमी की ओर सबका ध्यान आकृष्ट किया है। कवि का कोमल हृदय भारतीय जन की दयनीय अवस्था से पीड़ित है। वह उसके लिए ममत्व रखता है और भविष्य में उसकी महत्ता की ओर इंगित भी करता है।
जनता? हाँ, लंबी-बड़ी जीभ की बही कसम,
“जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
“है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का भाव यह है कि जनता असह्य वेदना को सहकर जीती है। जीवन में वह उफ तक नहीं करती। कवि शपथ लेकर कहता है कि लंबी-चौड़ी जीभ की बातों पर विश्वास किया जाय। कसम के साथ यह कहना है कि कवि की पीड़ा को शब्दों द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता है। जनमत का सही-सही अर्थ क्या है ? कवि राजनीतिज्ञों से पूछता है और जानना चाहता है। यह प्रश्न बड़ा गंभीर और प्रासंगिक है। ऐसी अपनी विषम स्थिति पर जनता की क्या सोच है ? राजनेताओं की डींग भरी बातों में कहीं उनकी पीड़ा या वेदना का जिक्र है क्या ?
इन पंक्तियों के द्वारा कवि जनता को पीड़ा, उसकी विपन्नता, कसक और उत्पीड़न भरी जिन्दगी की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट करते हुए चेतावनी देता है और लोकतंत्र का मजाक उड़ाने से मना करता है।
“मानो, जनता हो फूल जिसे एहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
अथवा कोई दुधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।’
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों के द्वारा कवि ने जनता को फूल के समान नहीं समझने और देखने को कहा है। कवि का भाव जनता के प्रति बड़ा ही पवित्र है। वह कहता है कि जनता फूल नहीं है कि जब चाहो दोनों में सजा लो और जहाँ चाहो वहाँ रख दो। जनता दुधमुंही बच्ची भी नहीं है कि उसे बरगला कर काम बना लोगे। वह झूठी-मूठी बातों से भरमाई नहीं जा सकती। तंत्र-मंत्र रूपी खिलौनों से भी वश में नहीं की जा सकती। जनता का हृदय सेवा और प्रेम से ही जीता जा सकता है। अतः, जनता को समादर के साथ उचित तरजीह और अधिकार मिलना चाहिए। उसके हक की रक्षा होनी चाहिए। सम्मान और सहभागिता भी सही होनी चाहिए।
लेकिन, होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढ़ाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
प्रस्तुत पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य पाठ से ली गयी हैं। इस कविता में जनता की अजेय शक्ति का वर्णन किया गया है। जनता के पास अपार शक्ति है। जनता जब हुँकार भरती है तब भूकंप हो जाता है। बवंडर उठ खड़ा होता है। जनता के हुँकार : के समक्ष सभी नतशिरे हो जाते हैं।
जनता की राह को आज तक कौन रोक सका है ? सुनो, जनता रथ पर सवार होकर आ रही है, उसकी राह छोड़ दो और सिंहासन खाली करो कि जनता आ रही है।
इन पंक्तियों में जनता की शक्ति और उसके उचित सम्मान की रक्षा हो, इस पर कवि जोर देता है। कवि जनता का अधिक शक्ति के साथ उसके सम्मान और उसके लिए पथ-प्रशस्त करने की भी सलाह देता है। इस प्रकार जनता के प्रति कवि उदार भाव रखता है वह समय का साक्षी है। इसीलिए भविष्य के प्रति आगाह करते हुए जनता के उचित सम्मान की सिफारिश करता है।
हँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है;
जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का आशय है कि जनता की हुँकार से, जनता की ललकार से, राजमहलों की नींवें उखड़ जाती हैं। मूल भाव है कि जनता और जनतंत्र के आगे राजतंत्र का अर्थ कोई मोल नहीं?
जनता की साँसों के बल से राजमुकुट हवा में उड़ जाते हैं-गूढार्थ हुआ कि जनता ही राजा को मान्यता प्रदान करती है और वही राजा का बहिष्कार या समाप्त भी करती है।
जन-पथ को कौन अबतक रोक सका है ? समय में वह ताव या शक्ति कहाँ जो जनता की राह को रोक सके। महा कारवाँ के भय से समय भी दुबक जाता है। जनता जैसा चाहती है, समय भी वैसी ही करवट बदल लेता है। जनता के मनोनुकूल समय बन जाता है। यहाँ मूल भाव यह है कि किसी भी तंत्र की नियामक शक्ति जनता है। उसका महत्त्व सर्वोपरि है।
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते आते हैं।
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का मूलभाव यह है कि वर्षों, सैकड़ों वर्षों, हजारों वर्षों बीता हुआ अंधकाररूपी समय बीत गया। अंबर चाँद-तारे प्रज्ज्वलित होकर धरती पर उतर रहे हैं। यह कोई दूसरा नहीं है। ये तो जनता के स्वप्न हैं जो अंधकार के वक्ष को चीरते हुए ध रा पर अवतरित हो रहे हैं। यहाँ प्रकृति के रूपों में भी कवि जनता के विजयारोहण का गान कर रहा है। जनता में अजेय शक्ति है। वह महाप्रलय और महाविकास की जननी है। उसके सामने सभी चीजें शक्तिहीन हैं, शून्य हैं। जनता का स्वतंत्रता में सर्वाधिक महत्त्व है।
सबसे विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तैयार करो;
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों में कवि के कहने का मुल भाव यह है कि भारत में लोकतंत्र का उदय हो रहा है। भारत स्वाधीन हो चुका है। यहाँ लोकतंत्र की स्थापना हो रही है। यहाँ की तैंतीस करोड़ जनता के हित की बात है। शीघ्र सिंहासन तैयार करो और जनता का अभिषेक कर सिंहासन पर बिठाओ ! आज राजा की अगवानी या अभ्यर्थना करने की जरूरत नहीं। आज प्रजा को पूजने और सिंहासनारूढ़ करने की जरूरत है।
आज का शुभ दिन तैंतीस करोड़ जनता के सिर पर राजमुकुट रखने का है। आशय कहने का है कि जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन ही लोकतंत्र है। अतः, लोकतंत्र की अगवानी, पूजा, अभ्यर्थना तथा उसे मान्यता मिलनी चाहिए।
आरती लिए तू किसे ढूंढता है मूरख,
मंदिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?
देवता कहीं सड़कों पर मिट्टी-तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
प्रस्तुत काव्य पंक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के “जनतंत्र का जन्म” काव्य-पाठ से ली गयी हैं। कवि के कहने का मूल भाव यह है कि आज हम आरती उतारने के लिए इतना व्यग्र हैं, मूर्ख बनकर किसे हम ढूँढ रहे हैं ?
मंदिरों, राजमहलों, तहखानों में अब देवता या राजा नहीं बसते हैं। आज के देवता हैं जनता। जनता को पाने के लिए सड़कों पर, खेतों में, खलिहानों में जाना होगा क्योंकि वहीं वे श्रम करते हुए मिलेंगे।
कहने का अर्थ यह है कि लोकतंत्र में जनता ही सब कुछ होती है। सारी शक्तियाँ उसी में निहित हैं। वही देवता है, वही राजा है वही लोकतंत्र है। अतः, उसे पाने के लिए गाँवों में, खेतों में, खलिहानों में, सड़कों पर जाना होगा। उसका तो वही मंदिर है, राजमहल है, तहखाना है। जनता . लोकतंत्र की शक्ति-पुंज है।
फावड़े और हल राजदंड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है।
दो राह, समय के रथ का घर्धर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
प्रस्तुत काव्य पक्तियाँ हमारी पाठ्यपुस्तक के ‘जनतंत्र का जन्म’ नामक काव्य-पाठ से ली गयी हैं। इन पंक्तियों का प्रसंग जनता के साथ जुड़ा हुआ है लोकतंत्र में जनता ही सर्वोपरि होती है। वही सत्ता को चलाती है। वही सत्ता की रक्षा करती है। वही सत्ता के लिए संघर्ष करती है।
लोकतंत्र का राजदंड कोई राजपत्र-कोई हथियार या भिन्न प्रकार का औजार नहीं है। लोकतंत्र का मूल राजदंड है-जनता का हल और कुदाला क्योंकि इसी के द्वारा वह धरती से सोना पैदाकर लोकतंत्र को सबल और सुसंपन्न बनाती है अब कुदाल और हल ही राजदंड के प्रतीक बनेंगे। ध रती की धूसरता का श्रृंगार आज सोना कर रहा है यानी धूल में ही स्वर्ण-कण छिपे हुए हैं
उनका रूप भले ही भिन्न-भिन्न हो। रास्ता शीघ्र दो, देखो, समय के रथ का पहिया घर्धर आवाज करते हुए आगे को बढ़ता जा रहा है। सिंहासन शीघ्रता से खाली करो, देखो जनता स्वयं आ रही है। इन पंक्तियों का गूढार्थ है कि जनता ही जनतंत्र की रक्षा, निर्माता और पोषक है।