MCQ and Summary for श्रम विभाजन और जाति प्रथा (Shram Vibhajan Aur Jati Pratha) Class 10 Hindi Godhuli Part 2 Bihar Board

श्रम विभाजन और जाति प्रथा - भीमराव अम्बेदकर MCQ and सारांश

Multiple Choice Question Solutions (बहुविकल्पी प्रश्न)

1. श्रम विभाजन और जाति प्रथा के लेखक कौन हैं ?
(A) महात्मा गाँधी
(B) जवाहरलाल नेहरू
(C) राम मनोहर लोहिया
(D) भीमराव अंबेडकर
उत्तर
(D) भीमराव अंबेडकर


2. भारतीय संविधान के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका किसकी है?
(A) भीमराव अंबेडकर
(B) ज्योतिबा फूले
(C) राजगोपालाचारी
(D) महात्मा गाँधी
उत्तर
(A) भीमराव अंबेडकर


3. सभ्य समाज की आवश्यकता क्या है ?
(A) जाति प्रथा
(B) श्रम विभाजन
(C) अणु बम
(D) दूध पानी
उत्तर
(B) श्रम विभाजन

4. निम्नलिखित रचनाओं में से कौन-सी रचना डॉ. अंबेडकर की है ?
(A) द कास्ट्स इन इंडिया
(B) द अनचटेबल्स, यू आर दे
(C) हू आर शूद्राज
(D) इनमें से सभी
उत्तर
(D) इनमें से सभी

5. भीमराव अंबेडकर के चिंतन तथा रचनात्मकता के इनमें से कौन प्रेरक व्यक्ति माने जाते हैं ?
(A) महात्मा बुद्ध
(B) कबीर दास
(C) ज्योतिबा फूले
(D) सभी
उत्तर
(D) सभी

6. जाति प्रथा का प्रमुख दोष क्या है?
(A) इसमें व्यक्ति न चाहते हुए भी पेशे से जुड़ जाता है
(B) वह पेशा कर नहीं पाता
(C) पेशा उसपर हावी रहता है
(D) सभी गलत है
उत्तर
(A) इसमें व्यक्ति न चाहते हुए भी पेशे से जुड़ जाता है

7. भीमराव का जन्म कब हुआ था ?
(A) 14 जून, 1891 में
(B) 24 जून, 1891 में
(C) 14 अप्रैल, 1891 में
(D) 14 जनवरी, 1891 में
उत्तर
(C) 14 अप्रैल, 1891 में

8. "बाबा साहेब अंबेडकर : सम्पूर्ण बाङ्गमय, कितने खंडों में प्रकाशित की गई ?
(A) 1
(B) 10
(C) 21
(D) 11
उत्तर
(C) 21

9. अम्बेडकर का जन्म कहाँ हुआ था ?
(A) मध्य प्रदेश के महू में
(B) उत्तर प्रदेश के बलिया में
(C) मध्य प्रदेश के सतना में
(D) पंजाब के लुधियाना में
उत्तर
(A) मध्य प्रदेश के महू में

10. हिन्दू धर्म एवं भारतीय समाज की कुरीतियों और विसंगतियों पर निम्नलिखित में किसने प्रहार किया ?
(A) राम ने
(B) सुदामा ने
(C) श्रीकृष्ण ने
(D) भीमराव अम्बेदकर ने
उत्तर
(D) भीमराव अम्बेदकर ने

11. भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व अप्रत्यक्ष कारण क्या है?
(A) सती प्रथा
(B) दहेज प्रथा
(C) जाति प्रथा
(D) बाल विवाह प्रथा
उत्तर
(C) जाति प्रथा

12. 'श्रम विभाजन और जाति प्रथा' पाठ बाबा साहेब के किस भाषण का संपादित अंश है ?
(A) द कास्ट्स इन इण्डिया : देयर मैकेनिज्म
(B) जेनेसिस एंड डेवलपमेंट
(C) एनीहिलेशन ऑफ कास्ट
(D) हू आर शूद्राज
उत्तर
(C) एनीहिलेशन ऑफ कास्ट


श्रम विभाजन और जाति प्रथा लेखक परिचय

बाबा साहेब भीमराव अंबेदकरका जन्म 14 अप्रैल 1891 ई० में मह, मध्यप्रदेश में एक दलित परिवार में हुआ था । मानव मुक्ति के पुरोधा बाबा साहेब अपने समय के सबसे सुपठित जनों में से एक थे । प्राथमिक शिक्षा के बाद बड़ौदा नरेश के प्रोत्साहन पर उच्चतर शिक्षा के लिए न्यूयार्क (अमेरिका), फिर वहाँ से लंदन (इंग्लैंड) गए । उन्होंने संस्कृत का धार्मिक, पौराणिक और पूरा वैदिक वाङ्मय अनुवाद के जरिये पढ़ा और ऐतिहासिक-सामाजिक क्षेत्र में अनेक मौलिक स्थापनाएँ प्रस्तुत की। सब मिलाकर वे इतिहास मीमांसक, विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, शिक्षाविद् तथा धर्म-दर्शन के व्याख्याता बनकर उभरे । स्वदेश में कुछ समय उन्होंने वकालत भी की। समाज और राजनीति में बेहद सक्रिय भूमिका निभाते हुए उन्होंने अछूतों, स्त्रियों और मजदूरों को मानवीय अधिकार व सम्मान दिलाने के लिए अथक संघर्ष किया। उनके चिंतन व रचनात्मकता के मुख्यत: तीन प्रेरक व्यक्ति रहे – बुद्ध, कबीर और ज्योतिबा फुले ! भारत के संविधान निर्माण में उनकी महती भूमिका और एकनिष्ठ समर्पण के कारण ही हम आज उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता कह कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं । दिसंबर, 1956 ई० में दिल्ली में बाबा साहेब का निधन हो गया ।

बाबा साहेब ने अनेक पुस्तकें लिखीं । उनकी प्रमुख रचनाएँ एवं भाषण हैं – ‘द कास्ट्स’ इन इंडिया : देयर मैकेनिज्म’, जेनेसिस एंड डेवलपमेंट’, ‘द अनटचेबल्स, हू आर दे’, ‘हू आर शूद्राज’, बुद्धिज्म एंड कम्युनिज्म’, बुद्धा एण्ड हिज धम्मा’, ‘थाट्स ऑन लिंग्युस्टिक स्टेट्स’, ‘द राइज एंड फॉल ऑफ द हिन्दू वीमेन’, ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्टआदि । हिंदी में उनका संपूर्ण वाङ्मय भारत सरकार के कल्याण मंत्रालय से ‘बाबा साहब अंबेदकर संपूर्ण वाङ्मय’ नाम से 21 खंडों में प्रकाशित हो चुका है।

यहाँ प्रस्तुत पाठ बाबा साहेब के विख्यात भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’ के ललई सिंह यादव द्वारा किए गए हिंदी रूपांतर ‘जाति-भेद का उच्छेद’ से किंचित संपादन के साथ लिया गया है । यह भाषण ‘जाति-पाति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (सन् 1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था, परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्णत: सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन स्थगित हो गया और यह पढ़ा न जा सका । बाद में बाबा साहेब ने इसे स्वतंत्र पुस्तिका का रूप दिया । प्रस्तुत आलेख में वे भारतीय समाज . में श्रम विभाजन के नाम पर मध्ययुगीन अवशिष्ट संस्कारों के रूप में बरकरार जाति प्रथा पर मानवीयता, नैसर्गिक न्याय एवं सामाजिक सद्भाव की दृष्टि से विचार करते हैं । जाति प्रथा के विषमतापूर्वक सामाजिक आधारों, रूढ़ पूर्वग्रहों और लोकतंत्र के लिए उसकी अस्वास्थ्यकर प्रकृति पर भी यहाँ एक संभ्रांत विधिवेत्ता का दृष्टिकोण उभर सका है । भारतीय लोकतंत्र के भावी नागरिकों के लिए. यह आलेख अत्यंत शिक्षाप्रद है।


श्रम विभाजन और जाति प्रथा पाठ परिचय

रस्तुत पाठ ‘श्रम विभाजन और जाति प्रथा’ ( Shram Vibhajan aur Jati Pratha) में लेखक ने जातीय आधार पर की जाने वाली असमानता के विरूद्ध अपना विचार प्रकट किया है। लेखक का कहना है कि आज के परिवेश में भी कुछ लोग ‘जातिवाद‘ के कटु समर्थक हैं, उनके अनुसार कार्यकुशलता के लिए श्रम विभाजन आवश्यक है, क्योंकि जाति प्रथा श्रमविभाजन का ही दूसरा रूप है। लेकिन लेखक की आपत्ति है कि जातिवाद श्रमविभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का रूप लिए हुए है। श्रम विभाजन किसी भी सभ्य समाज के लिए आवश्यक है। परन्तु भारत की जाति प्रथा श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन करती है और इन विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है।
जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान भी लिया जाए तो यह स्वभाविक नहीं है, क्योंकि यह मनुष्य की रूचि पर आधारित नहीं है। इसलिए सक्षम समाज का कर्त्तव्य है कि वह व्यक्तियों को अपने रूचि या क्षमता के अनुसार पेशा अथवा कार्य चुनने के योग्य बनाए। इस सिद्धांत के विपरित जाति-प्रथा का दूषित सिद्धांत यह है कि इससे मनुष्य के माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पेशा अपनाने के लिए मजबुर होना पड़ता है।
जाति-प्रथा पेशे का दोषपूर्ण निर्धारण ही नहीं करती, बल्कि जीवन भर के लिए मनुष्य को एक ही पेशे में बाँध भी देती है। इसके कारण यदि किसी उद्योग धंधे या तकनीक में परिवर्तन हो जाता है तो लोगों को भूखे मरने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाता है, क्योंकि खास पेशे में बंधे होने के कारण वह बेरोजगार हो जाता है।
जाति-प्रथा से किया गया श्रम-विभाजन किसी की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं होता। जिसके कारण लोग निर्धारित कार्य को अरूचि के साथ विवशतावश करते हैं। इस प्रकार जाति-प्रथा व्यक्ति की स्वभाविक प्रेरणारुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें स्वभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।
समाज के रचनात्मक पहलू पर विचार करते हुए लेखक कहते हैं कि आर्दश समाज वह है, जिसमें स्वतंत्रता, समता, भातृत्व को महत्व दिया जा रहा हो।


श्रम विभाजन और जाति प्रथा का सारांश (Summary)

प्रस्तुत पाठ में लेखक महोदय ने जाति प्रथा के कारण समाज उत्पन्न रूढ़िवादिता एवं लोकतंत्र पर खतरा को चित्रित किया है।

आज के वैज्ञानिक युग में भी “जातिवाद” के पोषकों की कमी नहीं है। उनका तर्क है कि आधुनिक समाज ‘कार्य-कुशलता’ के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है। चूंकि जाति-प्रथा भी श्रम-विभाजन का दूसरा रूप है। परन्तु जाति-प्रथा के कारण श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन, विभाजित वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है, जो विश्व के किसी भी समाज में नहीं पाया जाता।

अस्वाभाविक श्रमविभाजन के कारण मनुष्य स्वतंत्र रूप से अपनी पेशा का चुनाव नहीं कर सकता। माता-पिता के सामाजिक स्तर के अनुसार पेशा निर्धारित कर दिया जाता है। मनुष्य को जीवन भर के लिए एक पेशे में बाँध भी देती है। भले ही पेशा अनुपयुक्त और अपर्याप्त होने के कारण वह. भूखों मर जाए। पैतृक पेशा में वह पारंगत नहीं हो इसके बाद भी चुनाव करना पड़ता है। जाति-प्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख व प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा गंभीर दोषों से युक्त है। आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न इतनी बड़ी समस्या नहीं जितनी यह कि बहुत से लोग ‘निर्धारित कार्य को ‘अरूचि’ के साथ विवशतावश करते हैं। ऐसी परिस्थिति में स्वभावतः मनुष्य को दुर्भावना से ग्रस्त रहकर टालू काम करने और कम काम करने के लिए प्रेरित करती है। आर्थिक पहलू से भी जाति प्रथा हानिकारक प्रथा है।

लेखक की दृष्टि में आदर्श समाज स्वतंत्रता, समता, भ्रातृत्व पर आधारित होगा। भ्रातृत्व अर्थात् भाईचारे में किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। आदर्श समाज में गतिशीलता होनी चाहिए कि वांछित परिवर्तन समाज के एक छोर से दूसरे छोर तक संचारित हो सके। दूध-पानी के मिश्रण की तरह भाईचारे का यही वास्तविक रूप है। और इसी का दूसरा नाम लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचर्या की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान का भाव हो।

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