Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद Revision Notes Class 9 इतिहास History
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Chapter 4 वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद Notes Class 9 Itihas
Topics in the Chapter
- वन्य समाज
- वनोन्मूलन
- वन अधिनियम
- वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद
- वन विद्रोह
- ब्लैं डाँग डिएन्स्टेन
- जावा के जंगल
वन्य समाज
अठारहवीं शताब्दी में वन्य समाज कबीलों में बँटा हुआ था। कबीले का प्रमुख मुखिया था जिसका मुख्य कर्त्तव्य कबीले को सुरक्षा प्रदान करना था। धीरे-धीरे इन्होंने कबीलों पर अपना अधिकार जमाना शुरू कर दिया तथा अपने लिए कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त कर लिये।
वनों से लाभ
1. प्रत्यक्ष लाभ (Direct Benefits):अर्थव्यवस्था में वनों के निम्न प्रमुख प्रत्यक्ष लाभ हैं:
- वर्तमान में देश की राष्ट्रीय आय का लगभग 19 प्रतिशत कृषि उद्योग से प्राप्त होता है। इसमें लगभग 18 प्रतिशत वन सम्पत्ति द्वारा मिलता है।
- भारतीय वन, चरागाहों के अभाव में, लगभग 5.5 करोड़ पशुओं को चराने की सुविधा प्रदान करते हैं। पशुओं की चराई के अतिरिक्त वन प्रदेश अनेक प्रकार के कन्द-मूल फल भी प्रदान करते हैं, जिन पर ग्रामीणों की जीविका निर्भर करती है।
- वन (forest) लगभग 73 लाख व्यक्तियों को प्रत्यक्ष रूप से दैनिक व्यवसाय देते हैं। ये लोग लकड़ी काटने, लकड़ी चीरने, वन वस्तुएँ ढोने, नाव, रस्सी, बान, आदि तैयार करने तथा गोद, लाख, राल, कन्द मूल, जड़ी बूटियाँ, दवाइयाँ आदि एकत्रित करने लगे हैं। वन क्षेत्र में लगभग 3.1 करोड़ आदिवासियों का निवास स्थान है और उनके जीवन – यापन एवं अनेक कुटीर उद्योगों का यही वन आधारभूत या महत्त्वपूर्ण साधन है।
- वनो से सरकार को निरन्तर अधिक आय होती रही है। यह आय 1981-82 में 204 करोड़ रुपये की हुई थी जो वर्तमान में बढ़कर लगभग 3,300 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष हो गई है।
- वनो से विविध मुख्य व गौण उपजो से निरन्तर अधिकाधिक आय प्राप्त होती रही है। गौण उपज से 1950 में 6 करोड़ रुपये, 1970 में 30 करोड़ रुपये एवं 2003 में इनसे होने वाली आय आठ गुना बढ़कर 245 करोड़ रुपये से भी अधिक हो गई। इसी भाँति वनों से मुख्य उपज के रूप में लकड़ी व बास की आय में भी तेजी से वृद्धि हुई है। यह आय 1950 में 17.2 करोड़, 1970 में 105 करोड़ रही जो वर्तमान में बढ़कर 31.000 करोड़ रुपये हो गई है। इसका एक कारण वन्य उत्पादों के मूल्यों में विश्वव्यापी भारी वृद्धि भी रहा है।
- आम, साखू, सागवान, शीशम, देवदार, बबूल, रोहिडा, यूकेलिप्टस आदि लकड़ियों से मकान के दरवाजे, चौखट, कृषि के औजार, जहाज, रेल के डिब्बे, फर्नीचर, कई उद्योगो के सहायक पुर्जे, वाहनों के ढाँचे, आदि बनाये जाते हैं। मुलायम लकड़ियों से कागज और लुग्दी, दियासलाई, प्लाईवुड, तारपीन का तेल, गंधा – विरोजा, आदि वस्तुएँ प्राप्त की जाती है। इमारती लकड़ियों के अतिरिक्त जलाने के काम आने वाली लकड़ियाँ (धावड़ा, खैर, बबूल, आदि) वनों से ही प्राप्त होती हैं। देश से प्रतिवर्ष 65 करोड़ रुपये की लकड़ियाँ एवं लकड़ी की वस्तुएं, पैकिंग सामग्री आदि का भी निर्यात किया जाता है।
2. अप्रत्यक्ष लाभ (Indirect Benefits)
- वनों से नमी निकलती रहती है जिससे वायुमण्डल का तापमान सम होकर वातावरण आर्द्र वन जाता है, इससे वर्षा होती है।
- वन क्षेत्र वर्षा के जल को स्पंज की भांति चूस लेते हैं, अत: निम्न प्रदेशों में बाढ़ के प्रकोप का भय नहीं रहता और जल का बहाव धीमा होने के कारण समीपवर्ती भूमि का क्षरण भी रुक जाता है।
- वन प्रदेश वायु की तेजी को रोककर बहुत से भागों को शीत अथवा तेज बालू की आँधियों के प्रभाव से मुक्त कर देते हैं।
- ये वर्षा के जल को भूमि में रोक देते हैं और धीरे – धीरे बहने देते हैं। इससे मैदानी भागों में कुओं का जल तल से अधिक नीचे नहीं पहुंच पाता।
- वनों के वृक्षो से पत्तियाँ सूखकर गिरती है, वे धीरे – धीरे सड़ – गलकर मिट्टी में मिल जाती हैं और भूमि को अधिक उपजाऊ बना देती है।
- वन सुन्दर एवं मनमोहक दृश्य उपस्थित करते हैं और देश के प्राकृतिक सौन्दर्य में वृद्धि करते हैं। अतएव वे देशवासियों में सौन्दर्य भावना जाग्रत करते हैं और उन्हें सौन्दर्य एवं प्रकृति – प्रेमी बनाते हैं।
- घने वनों में कई प्रकार के कीड़े – मकोड़े तथा छोटे छोटे असंख्य जीव – जन्तु रहते हैं जिन पर बड़े जीव निर्भर रहते हैं। भारतीय वनों में कई प्रकार के शाकाहारी (नारहसिंघा, हिरन, साभर बैल, सूअर, हाथी, गैण्डा) तथा मांसाहारी (तेंदुआ, रीछ, बाघ, बघेरा, शेर) वन्य प्राणी रहते हैं। भारतीय वनों में लगभग 592 किस्म के वन्य पशु पाए जाते हैं। देश के 500 अभयारण्य, 29 बाघ संरक्षण क्षेत्र एवं 95 राष्ट्रीय उद्यानों का आधार भी वन ही है।
- आज के बढ़ते प्रदूषण के सर्वव्यापी घातक प्रभाव से मुक्ति दिलाकर भूमि पर पर्यावरण सन्तुलन का आधार भी वन ही प्रदान कर सकते हैं। अत: यह आज भी मानव सभ्यता के पोषक एवं संरक्षक है।
वनोन्मूलन
- वनोन्मूलन का अर्थ है वनों के क्षेत्रों में पेडों को जलाना या काटना ऐसा करने के लिए कई कारण हैं; पेडों और उनसे व्युत्पन्न चारकोल को एक वस्तु के रूप में बेचा जा सकता है और मनुष्य के द्वारा उपयोग में लिया जा सकता है जबकि साफ़ की गयी भूमि को चरागाह (pasture) या मानव आवास के रूप में काम में लिया जा सकता है।
- वृक्षों का वृहत पैमाने पर कटाई ‘ वनोन्मूलन ‘ कहलाता है। औपनिवेश काल में ‘ वनोन्मूलन ‘ की प्रक्रिया व्यापक तथा और भी व्यवस्थित हो गई।
- 1700 ई . से 1995 के बीच के बीच 139 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल विभिन्न उपयोग की वजह से साफ कर दिए गए।
वनोन्मूलन के कारण
- प्रारंभिक सभ्यता: प्रारंभिक सभ्यता मवेशियों के बड़े झुंड (पशुचारण), कृषि और लकड़ी के व्यापक उपयोग पर आधारित थी। जलाऊ लकड़ी ऊर्जा का एकमात्र स्रोत था। इसलिए, वनों का बड़े पैमाने पर दोहन और खंडन किया गया।
- मानव बस्तियों: जैसे-जैसे मानव आबादी में वृद्धि हुई, मानव बस्तियों के लिए जगह बनाने के लिए जंगलों को साफ किया गया, उनके मवेशियों के लिए फसल और चारागाह। जैसे-जैसे मानव आबादी में वृद्धि हुई, मानव बस्तियों के लिए जगह बनाने के लिए जंगलों को साफ किया गया, उनके मवेशियों के लिए फसल और चारागाह। प्रक्रिया वर्तमान समय तक जारी है।
- वनाग्नि: वे प्राकृतिक और मानवजनित दोनों हैं। आग का इस्तेमाल आदि-मानव द्वारा शिकार के लिए एक उपकरण के रूप में किया जाता था। बाद में, इसे युद्धकालीन रणनीति के रूप में नियोजित किया गया था। आग से कई वन क्षेत्र नष्ट हो जाते हैं। 1983 और 1997 के दौरान इंडोनेशिया में 4000 Km2 के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर वनाग्नि लगी थी। शुष्क गर्मी के मौसम में, ऐसी आग हिमाचल प्रदेश और अन्य क्षेत्रों में आम होती है।
- झूमिंग (स्थानांतरण खेती): जली हुई वनस्पति की राख के कारण खनिजों से समृद्ध खेती के लिए भूमि प्राप्त करने के लिए एक क्षेत्र को साफ करने के लिए यह आदिवासियों की एक स्लैश एंड बर्न प्रथा है। खेती 2-3 साल के लिए की जाती है। इसके बाद क्षेत्र को छोड़ दिया जाता है। परित्यक्त क्षेत्र खरपतवार, मिट्टी के कटाव और वनोन्मूलन के अन्य दोषों के आक्रमण का केंद्र बन जाता है।
- उत्खनन और खनन: दोनों को आम तौर पर पहाड़ी और वनाच्छादित क्षेत्र में किया जाता है। वे वनस्पति को खराब करते हैं और वनोन्मूलन का कारण बनते हैं।
- जलविद्युत परियोजनाएं- बिजली के उत्पादन और पानी को जमा करने के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में बांध और जलाशयों का निर्माण किया जाता है। वे वन भूमि के बड़े क्षेत्रों को जलमग्न कर देते हैं।
- नहरों: वन क्षेत्रों से गुजरने वाली नहरें पानी के रिसने के कारण कई पेड़ों को मार देती हैं।
- अत्यधिक चराई: उष्ण कटिबंध में गरीब मुख्य रूप से ईंधन के स्रोत के रूप में लकड़ी पर निर्भर होते हैं जिससे वृक्षों के आवरण का नुकसान होता है और साफ की गई भूमि चराई भूमि में बदल जाती है। मवेशियों द्वारा अतिचारण से इन भूमि का और क्षरण होता है।
- औद्योगिक उपयोग के लिए कच्चा माल: बक्से बनाने के लिए लकड़ी, फर्नीचर, रेलवे स्लीपर, प्लाईवुड, माचिस, कागज उद्योग के लिए लुगदी आदि ने जंगलों पर जबरदस्त दबाव डाला है। असम के चाय उद्योग के लिए चाय की पैकिंग के लिए प्लाइवुड की बहुत मांग है जबकि जम्मू-कश्मीर में सेब की पैकिंग के लिए देवदार के पेड़ की लकड़ी का बहुत उपयोग किया जाता है।
वनोन्मूलन के प्रभाव (Effects of Deforestation)
- बड़े पैमाने पर वनोन्मूलन के प्रभाव असंख्य और विविध हैं।
- रिसाव और भूजल पुनर्भरण में कमी आई है।
- मिट्टी का कटाव बढ़ा है।
- बाढ़ और सूखा अधिक बारंबार हो गया है।
- कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) की खपत और ऑक्सीजन (O2) के उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
- वनों में रहने वाली प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं, जिससे अपूरणीय आनुवंशिक संसाधनों का नुकसान हो रहा है।
- भूस्खलन और हिमस्खलन बढ़ रहे हैं।
- मनुष्य वृक्षों और जंगली जानवरों के लाभों से वंचित रहा है।
- बारिश का प्रतिरूप बदल रहा है।
- वनोन्मूलन वाले क्षेत्रों में पौधों द्वारा नमी की कमी के कारण जलवायु गर्म हो गई है।
- वन में रहने वाले लोगों के कमजोर वर्गों की अर्थव्यवस्था और जीवन की गुणवत्ता में गिरावट आई है। ईंधन की लकड़ी की कमी पहाड़ियों में महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या है। ईंधन की लकड़ी की कमी लोगों को जानवरों का गोबर जलाने के लिए मजबूर करती है, जो अन्यथा मिट्टी को उर्वरित करने के लिए उपयोग किया जाता। यह अनुमान लगाया गया है कि गोबर जलाने से अनाज का उत्पादन इतना कम हो जाता है कि हर साल 10 करोड़ लोगों का पेट भर सके।
भारत में वन विनाश के कारण
- बढती आबादी और खाद्य पदार्थों की माँग के कारण पेड़ कटोती का वस्तार।
- रेलवे लाइनो का विस्तार और रेलवे में लकड़ियों का उपयोग।
- यूरोप में चाय, कॉफी और रबड़ कि माँग को पूरा करने के लिए प्राकृतिक वनों का एक भरी हिस्सा साफ किया गया ताकि इसका बगान बनाया जा सके।
- वनों का विनाश प्राकतिक और मानवीय दोनों कारणों से होता है – प्राकतिक कारणों से विनष्ट वन कुछ समय पश्चात् प्रायः पुनः उग आते हैं किन्तु मानव द्वारा वनों के काटने और भूमि का उपयोग कषि, आवास, कारखाना, विद्युत संयंत्र आदि के रूप में किये जाने से वन सदा के लिए समाप्त हो जाते हैं।
- शुष्क मौसम में वक्षों के परस्पर रगड़ते रहने के कारण वनों में आग लग जाती है जिससे कभी-कभी विस्तत क्षेत्र में वन जल कर नष्ट हो जाते हैं।
- कभी-कभी आकाशी बिजली के सम्पर्क में आने से भी वनों में आग लगने से वक्ष जलकर नष्ट हो जाते हैं।
- जलवायु संबंधी कारणों से वन वक्षों में रोग लग जाते हैं और वक्ष सूख कर नष्ट हो जाते हैं।
- वक्षों की जड़ों, तनों तथा पत्तियों में कई प्रकार के कीटों के लग जाने पर भी समूहों में वक्ष सूख जाते हैं।
- वक्षों के विनाश में शाकाहारी जंगली पशुओं का भी हाथ होता है।
- उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में स्थानांतरणशील कषि के प्रचलन से वनों को काटकर कषि के लिए प्रति दो-तीन वर्ष के बाद नवीन भूमि प्राप्त की जाती है।
- आदिवासियों द्वारा की जाने वाली इस कषि पद्धति के कारण वनों का विनाश होता रहता है।
- पूर्वोत्तर भारत और मलाया के पर्वतीय भागों में प्रचलित स्थानांतरणशील कृषि वन विनाश के लिए काफी सीमा तक उत्तरदायी है।
- जनसंख्या वद्धि निर्वनीकरण का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण है। जनसंख्या में तीव्र वद्धि होने से भोजन, आवास, यातायात मार्ग आदि की मांगों की पूर्ति के लिए वनों को दीर्घकाल से साफ किया जाता रहा है किन्तु सर्वाधिक वन विनाश की घटनाएं बीसवीं शताब्दी में विशेषकर इसके उत्तरार्द्ध में हुई हैं। संघन जनसंख्या वाले क्षेत्र में वनों का लगभग सफाया हो चुका है।
- तकनीकी विकास यंत्रीकरण और औद्योगीकरण के विस्तार से लकड़ी की मांग में तीव्र वद्धि हुई है। कागज, लुग्दी तथा अन्य रासायनिक उद्योगों, फर्नीचर निर्माण, भवन निर्माण, रेल डिब्बों आदि के निर्माण के लिए लकड़ी की मांग और मूल्य में वद्धि होने से वनों की अंधाधुंध कटाई की गयी है जिससे निर्वनीकरण अधिक तेजी से हुआ और अनेक प्रकार की आर्थिक एवं पर्यावरणीय समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।
- नगरों के विस्तार या नवीन नगरों को बसाने के लिए कारखानों तथा विद्युत संयंत्रों की स्थापना एवं विशाल जलाशयों के निर्माण आदि के उद्देश्य से वन भूमि को साफ करने से होने वाला निर्वनीकरण-वर्तमान समय की प्रमुख घटना है।
भारत का पहला वन महानिदेशक
डायट्रिच ब्रैंडिस को भारत का पहला वन महानिदेशक बनाया गया।
भारतीय वन सेवा
भारतीय वन सेवा की स्थापना 1864 में की गई।
वन अधिनियम
1865 में पहला वन अधिनियम बनाया गया। 1878 के वन अधिनियम के द्वारा जंगल को तीन श्रेणियों में बाँटा गया :- आरक्षित
- सुरक्षित
- ग्रामीण
- सबसे अच्छे वनों को आरक्षित वन कहा गया जहाँ से ग्रामीण अपने उपयोग के लिए कुछ भी नहीं ले सकते थे।
- मकान बनाने के लिए या ईंधन के लिए वे सिर्फ ‘ सुरक्षित ‘ या ‘ ग्रामीण ‘ वन से ही लकडियाँ ले सकते थे वह भी अनुमति लेकर।
वैज्ञानिक वानिकी
- 1906 ई . में देहरादून मे ‘ इंपीरियल फॉरेस्ट रिसर्च इस्टीट्यूट ‘ की स्थापना की गई जहाँ वैज्ञानिक वानिकी ‘ पद्धति की शिक्षा दी जाती थी।
- वैज्ञानिक वानिकी ‘ एक ऐसी पद्धति थी जिसमें प्राकृतिक वनों की कटाई कर उसके स्थान पर कतारबद्ध तरीके से एक ही प्रजाति के पेड़ लगाए जाते थे। लेकिन आज यह पद्धति पूर्णतया अवैज्ञानिक सिद्ध हो गयी है।
वन कानूनों का प्रभाव
- लकड़ी काटना, पशुचारण कंदमूल इकट्ठा करना आदि गैरकानूनी घोषित कर दिए गए।
- वन रक्षकों की मनमानी बढ़ गई।
- घुमंतु खेती पर रोक।
- घुमंतु चरवाहों की आवाजाही पर रोक।
- जलावनी लकड़ी एकत्रित करने वाली महिलाओ का असुरक्षित होना।
- रोजमर्रा की चीजों के लिए वन रक्षकों की दया पर निर्भर होना।
- जंगल में रहने वाले आदिवासी समुदायों को जंगल से बेदखल होना पड़ा जिससे उनके सामने जीविका का संकट उत्पन्न हो गया।
वन्य समाज एवं उपनिवेशवाद
औद्योगिकरण के दौर में सन् 1700 से 1995 के बीच 139 लाख वर्ग किलोमीटर जंगल यानी दुनिया के कुल क्षेत्रफल का 9.3 प्रतिशत भाग औद्योगिक इस्तेमाल, खेती – बाड़ी और इंधन की लकड़ी के लिए साफ कर दिया गया।
जमीन की बेहतरी
- अगर हम बात करें सन् 1600 में हिंदुस्तान के कुल भूभाग के लगभग छठे हिस्से पर खेती होती थी। लेकिन अगर हम बात करें अभी की तो यह आंकड़ा बढ़कर आधे तक पहुंच गया। जैसे – जैसे आबादी बढ़ती गई वैसे – वैसे खाद्य पदार्थों की मांग भी बढ़ती गई।
- किसानों को जंगल को साफ करके खेती की सीमाओं का विस्तार करना पड़ा। औपनिवेशिक काल में खेती में तेजी से फैलाव आया इसकी बहुत सारी वजह थी जैसे अंग्रेजों ने व्यवसायिक फसलो जैसे पटसन, गन्ना, कपास के उत्पादन को जमकर प्रोत्साहित किया।
पटरी पर स्लीपर
- 1850 के दशक में रेल लाइनों के प्रसार ने लकड़ी के लिए एक नई तरह की मांग पैदा कर दी। शाही सेना के आने जाने के लिए और औपनिवेशिक व्यापार के लिए रेल लाइनें बहुत जरूरी थी।
- इंजनों को चलाने के लिए इंधनों के तौर पर और रेल की पटरियों को जोड़े रखने के लिए ‘ स्लीपर ‘ के रूप में लकड़ी की भारी जरूरत थी।
- एक मील लंबी रेल की पटरी के लिए 1760 – 2000 स्लीपरों की आवश्यकता पड़ती थी। भारत में रेल लाइनों का जाल 1860 के दशक से तेजी से फैला। 1890 तक लगभग 25,500 किलोमीटर लंबी लाइनें बिछाई जा चुकी थी।
- 1946 में इन लाइनों की लंबाई 7,65,000 किलोमीटर तक बढ़ चुकी थी। रेल लाइनों के प्रसार के साथ – साथ पेड़ों को भी बहुत बड़ी मात्रा में काटा जा रहा था। अगर हम बात करें अकेले मद्रास की तो प्रेसिडेंसी में 1850 के दशक में प्रतिवर्ष 35,000 पेड़ स्लीपरों के लिए काटे गए सरकार ने आवश्यक मात्रा की आपूर्ति के लिए निजी ठेके दिए।
- इन ठेकेदारों ने बिना सोचे समझे पेड़ काटना शुरू कर दिया। रेल लाइनों के आसपास जंगल तेजी से गायब होने लगें।
बागान
यूरोप में चाय और कॉफी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए इन वस्तुओं के बागान बने और इनके लिए भी प्राकृतिक वनों का एक भारी हिस्सा साफ किया गया। औपनिवेशिक सरकार ने जंगलों को अपने कब्जे में लेकर उनको विशाल हिस्सों को बहुत सस्ती दरों पर यूरोपीय बागान मालिकों को सौंप दिए।
व्यवसायिक वानिकी की शुरुआत
- ब्रेडिंस नाम का एक जर्मन विशेषज्ञ था। उसने यह महसूस कराया कि लोगों कि वन का संरक्षण जरूरी है और जंगलों के प्रबंधन के लिए एक व्यवस्थित तंत्र विकसित करना होगा। इसके लिए कानूनी मंजूरी की जरूरत पड़ेगी। वन संपदा के उपयोग संबंधी नियम तय करने पड़ेंगे।
- पेड़ों की कटाई और पशुओं को चराने जैसी गतिविधियों पर पाबंदी लगा कर ही जंगलों को लकड़ी उत्पादन के लिए आरक्षित किया जा सकेगा।
- इस तंत्र में पेड़ काटने वाले को सजा का भागी बनना होगा। अलग – अलग प्रजाति वाले प्राकृतिक वनों को काट डाला गया और इनकी जगह सीधी पंक्ति में एक ही किस्म के पेड़ लगा दिए गए इसे बागान कहा जाता था।
लोगों का जीवन कैसे प्रभावित हुआ
- जहां एक तरफ ग्रामीण अपनी अलग – अलग जरूरतों जैसे इंधन, चारे व पत्तों के लिए जंगल में अलग – अलग प्रजातियों का पेड़ चाहते थे। वहीं इनसे अलग वन विभाग को ऐसे पेड़ों की जरूरत थी जो जहाजों और रेलवे के लिए इमारती लकड़ी मुहैया करा सके।
- ऐसी लकड़ियां जो सख्त, लंबी और सीधी हो।
- इसलिए सागौन और साल जैसी प्रजातियों को प्रोत्साहित किया गया और दूसरी किस्मे काट डाली गई।
- जंगल वाले इलाके में लोग कंदमूल फल और पत्ते आदि वन उत्पादों का अलग अलग तरीके से इस्तेमाल करते थे।
- दवाओं के रूप में जड़ी बूटियों के रूप में लकड़ी का इस्तेमाल होता था।
- हल के रूप में और खेती वाले औजार बनाने के रूप में लकड़ी का इस्तेमाल होता था।
- बांस से टोकरी बनाने के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता था।
शिकार की आजादी
- जंगल संबंधी नए कानूनों ने जंगल वासियों के जीवन को एक और तरह से प्रभावित किया जंगल कानूनों के पहले जंगलों में या उनके आसपास रहने वाले बहुत सारे लोग हिरण, तीतर जैसे छोटे मोटे शिकार करके अपना जीवन यापन करते थे।
- यह एक पारंपारिक प्रथा अब गैरकानूनी हो गई शिकार करते हुए पकड़े जाने वालों को अवैध शिकार के लिए दंडित किया जाने लगा।
- हालांकि शिकार पर पाबंदी लगा दी गई थी परन्तु अंग्रेज अफसरों व नवाबों को अभी भी ये छूट मिली हुई थी।
- जार्ज यूल नामक अंग्रेज अफसर ने अकेले 400 वाघो को मारा था। ये शिकार मनोरंजन के साथ – साथ अपनी प्रभुता सिद्ध करने के लिए की जाती थी।
वन विद्रोह
हिंदुस्तान और दुनिया भर में वन्य समुदाय ने अपने ऊपर थोपे गए बदलाव के खिलाफ बगावत की।
बस्तर के लोग
- बस्तर छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी छोर पर आंध्र प्रदेश, उड़ीसा व, महाराष्ट्र की सीमाओं से लगा हुआ क्षेत्र है। उत्तर में छत्तीसगढ़ का मैदान और दक्षिण में गोदावरी का मैदान है इंद्रावती नदी बस्तर के आर पार पूरब से पश्चिम की तरफ बहती है। बस्तर में मरिया और मूरिया, भतरा, हलबा आदि अनेक आदिवासी समुदाय रहते हैं।
- अलग–अलग जबानें बोलने के बावजूद इनकी रीति रिवाज और विश्वास एक जैसे हैं। बस्तर के लोग हरेक गांव को उसकी जमीन को ‘ धरती मां ‘ की तरह मानते है। धरती के अलावा वे नदी, जंगल व पहाड़ों की आत्मा को भी उतना ही मानते हैं।
- एक गांव के लोग दूसरे गांव के जंगल से थोड़ी लकड़ी लेना चाहते हैं तो इसके बदले में वह एक छोटा सा शुल्क अदा करते हैं।
- कुछ गांव अपने जंगलों की हिफाजत के लिए चौकीदार रखते हैं जिन्हें वेतन के रूप में हर घर से थोड़ा – थोड़ा अनाज दिया जाता है हर वर्ष एक बड़ी सभा का आयोजन होता है जहां एक गांव का समूह गांव के मुखिया जुड़ते हैं और जंगल सहित तमाम दूसरे अहम मुद्दों पर चर्चा करते हैं।
ब्लैं डाँग डिएन्स्टेन
डचों ने पहले जंगलों में खेती की जमीनों पर लगान लगा दिया और बाद में कुछ गाँवों को इस शर्त पर इससे मुक्त कर दिया कि वे सामुहिक रूप से पेड़ काटने व लकड़ी ढोने के लिए भैंसे उपलब्ध कटाने का काम मुफ्त में कटेंगे। इस व्यवस्था को ‘ ब्लैं डाँग डिएन्स्टेन कहा गया।
जावा के जंगलों में हुए बदलाव
जावा को आजकल इंडोनेशिया के चावल उत्पादक द्वीप के रूप में जाना जाता है। भारत व इंडोनेशिया के वन कानूनों में कई समानताएं थी। 1600 में जावा की अनुमानित आबादी 34 लाख थी उपजाऊ मैदानों में ढेर सारे गांव थे लेकिन पहाड़ों में भी घुमंतू खेती करने वाले अनेक समुदाय रहते थे।
जावा के लकड़हारे
उनके कौशल के बगैर सागौन की कटाई कर राजाओं के महल बनाना बहुत मुश्किल था। डचों ने जब 18 वीं सदी में जंगलों पर नियंत्रण स्थापित करना शुरू कर दिया तब इन्होंने भी कोशिश की किले पर हमला करके इसका प्रतिरोध किया लेकिन इस विद्रोह को दबा दिया गया।
जावा में डचों द्वारा वन कानून बनाने के बाद
- ग्रामीणों का वनों में प्रवेश निषेध कर दिया गया।
- वनों से लकड़ियों की कटाई कुछ विशेष कार्यों जैसे नाव बनाने या घन बनाने के लिए किया जा सकता था वह भी विशेष वनों से निगरानी में।
- मवेशियों के चारण परमिट के बिना लकड़ियों की ढुलाई और वन के अंदर घोड़गाड़ी या मवेशी पर यात्रा करने पर दंड का प्रावधान था।
सामिनों विद्रोह
- डचों के इस कानून के खिलाफ सामिनों ने विरोध किया।
- सुरोंतिको सामिन ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया जिनका मत था कि जब राज्य ने हवा, पानी, धरती या जंगल नहीं बनाए तो यह उस पर कर भी नहीं लगा सकते।
विद्रोह के तरीकों में:
- सर्वेक्षण करने आये डचों के सामने जमीनों पर लेटना।
- लगान या जुर्माना न भरना।
- बेगार से इंकार करना।
जावा पर जापानियों के कब्जे ठीक पहले डचों ने भस्म कर भागो नीति के तहत सागौन और आरा मशीनों के लट्ठे जला दिए ताकि वे जापानियों के हाथ न पड़े। इसके बाद जापानियों ने वनवासियों को जंगल काटने के लिए बाध्य कर अपने युद्ध उद्योग के लिए जंगलों का निर्मम दोहन किया।