NCERT Solutions for Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण Class 11 Biology

Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण NCERT Solutions for Class 11 Biology are prepared by our expert teachers. By studying this chapter, students will be to learn the questions answers of the chapter. They will be able to solve the exercise given in the chapter and learn the basics. It is very helpful for the examination.

एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter 18 शरीर द्रव तथा परिसंचरण Class 11 Biology

प्रश्न 1. रक्त के संगठित पदार्थों के अवयवों का वर्णन कीजिए तथा प्रत्येक अवयव के एक प्रमुख कार्य के बारे में लिखिए।

उत्तर

इसके अन्तर्गत रुधिर (blood) तथा लसीका (lymph) आते हैं। इसका तरल मैट्रिक्स प्लाज्मा (plasma) कहलाता है। प्लाज्मा में तन्तुओं का अभाव होता है। प्लाज्मा में पाई जाने वाली कोशिकाओं को रुधिराणु (corpuscles) कहते हैं। तरल ऊतक सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर वाहिनियों (vessels) और केशिकाओं (capillaries) में बहता रहता है। कोशिकाएँ या रुधिराणु स्वयं प्लाज्मा का स्राव नहीं करती हैं।

रुधिर (Blood): रुधिर जल से थोड़ा अधिक श्यान (viscous ), हल्का क्षारीय (pH 7.3 से 74 के बीच) तथा स्वाद में थोड़ा नमकीन होता है। एक स्वस्थ मनुष्य में रक्त शरीर के कुल भार का 7% से 8% होता है । रुधिर की औसत मात्रा 5 लीटर होती है।

रुधिर के दो मुख्य घटक (components) होते हैं-

  1. प्लाज्मा (Plasma),
  2. रुधिर कोशिकाएँ (Blood Corpuscles)

1. प्लाज्मा (Plasma)

यह हल्के पीले रंग का, हल्का क्षारीय एवं निर्जीव तरल है। यह रुधिर का लगभग 55% भाग बनाता है। प्लाज्मा में 90% जल होता है। 8 से 9% कार्बनिक पदार्थ होते हैं तथा लगभग 1% अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। 

  • कार्बनिक पदार्थ (Organic Substances): रक्त प्लाज्मा में लगभग 7% प्रोटीन होती है। प्रोटीन्स मुख्यत: ऐल्बूमिन (albumin), ग्लोबुलिन (globulin), प्रोथ्रोम्बिन (prothrombin) तथा फाइब्रिनोजन (fibrinogen) होती हैं। इनके अतिरिक्त हॉर्मोन्स, विटामिन्स, श्वसन गैसें, हिपैरिन (heparin), यूरिया, अमोनिया, ग्लूकोस, ऐमीनो अम्ल, वसा अम्ल, ग्लिसरॉल, प्रतिरक्षी (antibodies) आदि होते हैं। प्लाज्मा प्रोटीन रुधिर का परासरणी दाब (osmotic pressure) बनाए रखने में सहायक है। कुछ प्रोटीन्स प्रतिरक्षी की भाँति कार्य करती हैं। प्रोथ्रोम्बिन तथा फाइब्रिनोजन रुधिर स्कन्दन (blood clotting ) में सहायता करते हैं। हिपैरिन प्रतिस्कंदक (anticoagulant) है।
  • अकार्बनिक पदार्थ (Inorganic Substances): अकार्बनिक पदार्थों में सोडियम, कैल्सियम, मैग्नीशियम तथा पोटैशियम के फॉस्फेट, बाइकार्बोनेट, सल्फेट तथा क्लोराइड्स आदि पाए जाते हैं।


2. रुधिर कणिकाएँ या रुधिराणु (Blood Cells or Blood Corpuscles)

ये रुधिर का 45% भाग बनाते हैं। रुधिराणु तीन प्रकार के होते हैं। इनमें लगभग 99% लाल रुधिराणु हैं। शेष श्वेत रुधिराणु तथा रुधिर प्लेटलेट्स होते हैं।

(क) लाल रुधिराणु (Red Blood Corpuscles or Erythrocytes) – मेढक के रक्त में इनकी संख्या 4.5 लाख से 5.5 लाख प्रति घन मिमी होती है। मनुष्य में इनकी संख्या 54 लाख प्रति घन मिमी होती है। स्तनियों के रुधिराणु केन्द्रकरहित, गोल तथा उभयावतल (biconcave) होते हैं। इनमें लौहयुक्त यौगिक हीमोग्लोबिन पाया जाता है। ये ऑक्सीजन परिवहन का कार्य करते हैं। अन्य कशेरुकियों में लाल रुधिराणु अण्डाकार तथा केन्द्रकयुक्त होते हैं।

लाल रुधिराणु ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) का कार्य करते हैं। इसका हीमोग्लोबिन (haemoglobin) ऑक्सीजन को ऑक्सीहीमोग्लोबिन (oxyhaemoglobin) के रूप में ऊतकों तक पहुँचाता है।

(ख) श्वेत रुधिराणु या ल्यूकोसाइट्स (Leucocytes) – इनकी संख्या 6000-8000 प्रति घन मिमी होती है। ये केन्द्रकयुक्त; अमीबा के आकार की तथा रंगहीन होती हैं।

श्वेत रुधिराणु मुख्य रूप से दो प्रकार के होते हैं—

  • कणिकामय (Granulocytes)
  • कणिकारहित (Agranulocytes)

(i) कणिकामय (Granulocytes) – केन्द्रक की संरचना के आधार पर ये तीन प्रकार की होती हैं-

  • बेसोफिल्स (Basophils) – इनका केन्द्रक बड़ा तथा 2-3 पालियों में बँटा दिखाई देता है।
  • इओसिनोफिल्स (Eosinophils) – इनका केन्द्रक दो स्पष्ट पिण्डों से बँटा होता है। दोनों भाग परस्पर तन्तु से जुड़े होते हैं। ये एलर्जी (allergy), प्रतिरक्षण (immunity) एवं अति संवेदनशीलता में महत्त्वपूर्ण कार्य करते हैं।
  • न्यूट्रोफिल्स (Neutrophils) – इनका केन्द्रक 2 से 5 भागों में बँटा होता है। ये सूत्र द्वारा परस्पर जुड़े रहते हैं। ये भक्षकाणु (phagocytosis) द्वारा रोगाणुओं का भक्षण करते हैं।

(ii) एग्रैन्यूलोसाइट्स (Agranulocytes) – इनका कोशिकाद्रव्य कणिकारहित होता है। इनका केन्द्रक अपेक्षाकृत बड़ा व घोड़े की नाल के आकार का (horse-shoe shaped) होता है। ये दो प्रकार की होती हैं-

  • लिम्फोसाइट्स (Lymphocytes) – ये छोटे आकार के श्वेत रुधिराणु हैं। इनका कार्य प्रतिरक्षी (antibodies) का निर्माण करके शरीर की सुरक्षा करना है।
  • मोनोसाइट्स (Monocytes) – ये बड़े आकार की कोशिकाएँ हैं, जो भक्षकाणु क्रिया (phagocytosis) द्वारा शरीर की सुरक्षा करती हैं।
    कार्य (Functions): श्वेत रुधिराणु रोगाणुओं एवं हानिकारक पदार्थों से शरीर की सुरक्षा करते हैं।
  • रुधिर बिम्बाणु या रुधिर प्लेटलेट्स (Blood Platelets or Thrombocytes) — इनकी संख्या 2 लाख से 5 लाख प्रति घन मिमी तक होती है। ये उभयोत्तल (biconvex), तश्तरीनुमा होते हैं। ये रुधिर स्कंदन में सहायक होते हैं।
    स्तनधारियों के अतिरिक्त अन्य कशेरुकियों में रुधिर प्लेटलेट्स के स्थान पर स्पिंडल कोशिकाएँ (spindle cells) पाई जाती हैं। इनमें केन्द्रक पाया जाता है।


प्रश्न 2. प्लाज्मा (प्लैज्मा) प्रोटीन का क्या महत्व है?

उत्तर

फाइब्रिनोजन, ग्लोब्यूलिन तथा एल्ब्यूमिन आदि मुख्य प्लाज्मा प्रोटीन हैं। इसका महत्व निम्न कारणों से बहुत अधिक है-

  1. रुधिर के थक्का जमने के लिए फाइब्रिनोजन की आवश्यकता होती है।
  2. ग्लोब्यूलिन शरीर की रक्षात्मक क्रियाओं में प्राथमिक रूप से आवश्यक है।
  3. एल्ब्यूमिन ऑस्मोटिक सन्तुलन में सहायता करते हैं।


प्रश्न 3. स्तम्भ I का स्तम्भ II से मिलान करें-

स्तम्भ I

स्तम्भ II

(i) इओसिनोफिल्स

(a) रक्त जमाव (स्कंदन)

(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ

(b) सर्वआदाता

(iii) AB रुधिर समूह

(c) संक्रमण प्रतिरोध

(iv) पट्टिकाणु प्लेटलेट्स

(d) हृदय संकुचन

(v) प्रकुंचन (सिस्टोल)

(e) गैस परिवहन (अभिगमन)

उत्तर

स्तम्भ I

स्तम्भ II

(i) इओसिनोफिल्स

(c) संक्रमण प्रतिरोध

(ii) लाल रुधिर कणिकाएँ

(e) गैस परिवहन (अभिगमन)

(iii) AB रुधिर समूह

(b) सर्वआदाता

(iv) पट्टिकाणु प्लेटलेट्स

(a) रक्त जमाव (स्कंदन)

(v) प्रकुंचन (सिस्टोल)

(d) हृदय संकुचन


प्रश्न 4. रक्त को एक संयोजी ऊतक क्यों मानते हैं?

उत्तर

रक्त एक विशेष संयोजी ऊतक है जिसमें द्रवीय पदार्थ, प्लाज्मा तथा अन्य अवयव मिलते हैं। ये सम्पूर्ण शरीर में परिसंचरण करते हैं।


प्रश्न 5. लसिका एवं रुधिर में अन्तर बताइए ।

उत्तर

लसिका

रुधिर

लसिका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है।

रुधिर द्रवीय माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है।

यह महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है।

इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएँ मिलती हैं जैसे - लाल रुधिर कणिकाएँ, सफेद रुधिर कणिकाएँ तथा प्लेटलेट।

वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसिका वाहिनियों में होता है।

रुधिर कणिकाएँ अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं।


प्रश्न 6. दोहरे परिसंचरण से क्या तात्पर्य है? इसकी क्या महत्ता है?

उत्तर

दोहरा परिसंचरण (Double Circulation) – यह पक्षियों तथा स्तनियों में पाया जाता है। इन प्राणियों में शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहता है। हृदय के दाएँ भाग को सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) तथा बाएँ भाग को पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) कहते हैं। इनमें शुद्ध तथा अशुद्ध रक्त पृथक् रहने के कारण इसे द्वि चक्रीय परिसंचरण या दोहरा परिसंचरण कहते हैं।

दोहरे परिसंचरण का महत्त्व:

दोहरे परिसंचरण में हृदय में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। इस कारण हृदय में शुद्ध रुधिर तथा अशुद्ध रुधिर अलग-अलग रहते हैं। हृदय के दाएँ भाग में सारे शरीर से अशुद्ध रुधिर आता है तथा यह रुधिर पल्मोनरी चाप द्वारा फेफड़ों में शुद्ध होने के लिए चला जाता है। हृदय के बाएँ भाग में पल्मोनरी शिराओं द्वारा शुद्ध रुधिर आता है तथा यह कैरोटिको सिस्टेमिक चाप द्वारा सारे शरीर में प्रवाहित हो जाता है।

इस प्रकार दोहरे परिसंचरण में कहीं भी शुद्ध व अशुद्ध रुधिर का मिश्रण न होने के कारण परिसंचरण अधिक प्रभावशाली (efficient) रहता है। इसके अतिरिक्त दो अलग-अलग बन्द कक्ष होने के कारण रुधिर प्रवाह के लिए अधिक दाब उत्पन्न होता है।


प्रश्न 7. भेद स्पष्ट करें-

(क) रक्त एवं लसीका

(ख) खुला व बंद परिसंचरण तन्त्र

(ग) प्रकुंचन तथा अनुशिथिलन

(घ) P तरंग तथा T तरंग

उत्तर

(क) रक्त एवं लसीका में अन्तर

लसिका

रक्त

लसिका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है।

रुधिर द्रवीय माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है।

यह महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है।

इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएँ मिलती हैं जैसे - लाल रुधिर कणिकाएँ, सफेद रुधिर कणिकाएँ तथा प्लेटलेट।

वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसिका वाहिनियों में होता है।

रुधिर कणिकाएँ अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं।


(ख) खुला व बंद परिसंचरण तन्त्र में अन्तर

खुला परिसंचरण तन्त्र

बंद परिसंचरण तन्त्र

खुला परिसंचरण तन्त्र आर्थोपोडा तथा मोलस्का में मिलता है जिसमें हृदय द्वारा पम्प किया रुधिर बड़ी वाहिनियों से देहगुहा के कोटरों में भेजा जाता है।

एनीलिडा तथा कशेरुकियों में बंद परिसंचरण तन्त्र मिलता है जिसमें रुधिर हृदय द्वारा निरन्तर पम्प किया जाता है तथा रुधिर वाहिनियों के जाल में बहता रहता है।


(ग) प्रकुंचन व अनुशिथिलन में अन्तर

प्रकुंचन

अनुशिथिलन

लसिका एक रंगहीन द्रव है जिसमें विशेष लिम्फोसाइट मिलती है। यह महत्त्वपूर्ण पोषक तत्त्वों, हार्मोन आदि का संवाहक भी है। वसा का अवशोषण क्षुद्रांत्र के रसांकुर में उपस्थित लसिका वाहिनियों में होता है।

रुधिर द्रवीय माध्यम प्लाज्मा से निर्मित है। इसमें तीन प्रकार की रुधिर कणिकाएँ मिलती हैं जैसे-लाल रुधिर कणिकाएँ, सफेद रुधिर कणिकाएँ तथा प्लेटलेट। रुधिर कणिकाएँ अस्थि मज्जा में निर्मित होती हैं।


(घ) 'P' तरंग तथा तरंग में अन्तर

'P' तरंग

'T’ तरंग

इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम में P तरंग को अलिंद के उद्दीपन/विध्रुवण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे दोनों अलिंदों का संकुचन होता है।

'T' तरंग निलय की उत्तेजना से सामान्य अवस्था में वापस आने की स्थिति को प्रदर्शित करता है। 'T' तरंग का अंत प्रकुंचन अवस्था की समाप्ति का द्योतक है।


प्रश्न 8. कशेरुकी के हृदयों में विकासीय परिवर्तनों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

कशेरुकी प्राणियों में हृदय का निर्माण भ्रूण के मध्य स्तर (mesoderm) से होता है। भ्रूण अवस्था में आद्यान्त्र (archenteron) के नीचे अधारीय आन्त्र योजनी (mesentry) में दो अनुदैर्घ्य अन्तःस्तरी नलिकाएँ (endothelial canals) परस्पर मिलकर हृदय का निर्माण करती हैं। हृदय एक पेशीय थैलीनुमा रचना होती है। यह शरीर से रक्त एकत्र करके धमनियों द्वारा शरीर के विभिन्न भागों में पम्प करता है।

कशेरुकी प्राणियों में हृदय निम्नलिखित प्रकार के होते हैं-

  1. एक कोष्ठीय हृदय (Single-chambered Heart) — सरलतम हृदय सिफैलोकॉर्डेटा (cephalochordates) जन्तुओं में पाया जाता है। ग्रसनी के नीचे स्थित अघरीय एऑर्टा पेशीय होकर रक्त को पम्प करने का कार्य करता है। इसे एककोष्ठीय हृदय मानते हैं।
  2. द्विकोष्ठीय हृदय (Two chambered Heart) — मछलियों में द्विकोष्ठीय हृदय होता है। यह अनॉक्सीजनित रक्त को गिल्स (gills) में पम्प कर देता है। गिल्स से यह रक्त ऑक्सीजनित होकर शरीर में वितरित हो जाता है। इसमें धमनीकोटर एवं शिराकोटर सहायक कोष्ठ तथा अलिन्द एवं निलय वास्तविक कोष्ठ होते हैं, इस प्रकार के हृदय को शिरीय हृदय (venous heart) कहते हैं।
  3. तीन कोष्ठीय हृदय (Three-chambered Heart) – उभयचर (amphibians) में तीन कोष्ठीय हृदय पाया जाता है। इसमें दो अलिन्द तथा एक निलय होता है। शिराकोटर (sinus venosus) दाहिने अलिन्द के पृष्ठ तल पर खुलता है। बाएँ अलिन्द में शुद्ध तथा दाहिने अलिन्द में अशुद्ध रक्त रहता है। निलय पेशीय होता है। वान्डरवॉल तथा फॉक्सन के अनुसार उभयचरों में मिश्रित रक्त वितरित होता है। इसमें रुधिर संचरण एक परिपथ (single circuit) वाला होता है।
  4. चारकोष्ठीय हृदय (Four-chambered Heart) — अधिकांश सरीसृपों में दो अलिन्द तथा दो अपूर्ण रूप से विभाजित निलय पाए जाते हैं। मगरमच्छ के हृदय में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। पक्षी तथा स्तनी जन्तुओं में दो अलिन्द तथा दो निलय होते हैं। बाएँ अलिन्द तथा बाएँ निलय में शुद्ध रक्त भरा होता है। इसे दैहिक चाप द्वारा शरीर में पम्प कर दिया जाता है। दाएँ अलिन्द में शरीर के विभिन्न भागों से अशुद्ध रक्त एकत्र होता है। यह दाएँ निलय से शुद्ध होने के लिए फेफड़ों में भेज दिया जाता है। इस प्रकार हृदय का बायाँ भाग पल्मोनरी हृदय (pulmonary heart) तथा दायाँ भाग सिस्टेमिक हृदय (systemic heart) कहलाता है। इन प्राणियों में दोहरा परिसंचरण होता है। इसमें रक्त के मिश्रित होने की सम्भावना नहीं होती।


प्रश्न 9. हम अपने हृदय को पेशीजनक (मायोजेनिक ) क्यों कहते हैं?

उत्तर

हृदय की भित्ति हृद पेशियों (cardiac muscles) से बनी होती है । हृद पेशियाँ रचना में रेखित पेशियों के समान होती हैं, लेकिन कार्य में अरेखित पेशियों के समान अनैच्छिक होती हैं। हृदय पेशियाँ मनुष्य की इच्छा से स्वतन्त्र, स्वयं बिना थके, बिना रुके, एक निश्चित दर (मनुष्य में 72 बार प्रति मिनट) और एक निश्चित लय (rhythm) से जीवनभर संकुचित और शिथिल होती रहती हैं। प्रत्येक हृदय स्पन्दन में संकुचन की प्रेरणा, प्रेरणा-संवहनीय पेशी के तन्तुओं 'S - A node' से प्रारम्भ होती है। S-A node से संकुचन प्रेरणा स्व:उत्प्रेरण द्वारा उत्पन्न होकर A-V node तथा हिस के समूह (bundle of His) से होकर पुरकिन्जे तन्तुओं द्वारा अलिन्द और निलयों में फैलती है।

हृदय पेशियों में संकुचन के लिए तन्त्रिकीय प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। पेशियों में संकुचन पेशियों के कारण होते हैं अर्थात् संकुचन पेशीजनक (myogenic) होते हैं। यदि हृदय में जाने वाली तन्त्रिकाओं को काट दें तो भी हृदय अपनी निश्चित दर से धड़कता रहता है। तन्त्रिकीय प्रेरणाएँ हृदय की गति की दर को प्रभावित करती हैं। हृदय पेशियों के तन्तुओं में ऊर्जा उत्पादन हेतु प्रचुर मात्रा में माइटोकॉण्ड्रिया पाए जाते हैं।


प्रश्न 10. शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) को हृदय का गति प्रेरक (पेस मेकर) क्यों कहा जाता है?

उत्तर

शिरा अलिन्द पर्व (कोटरालिन्द गाँठ SAN) — दाएँ अलिन्द की भित्ति के अग्र महाशिरा छिद्र के समीप शिरा अलिन्द घुण्डी (Sino Atrial Node; SAN) स्थित होती है। इसे गति प्रेरक (pace maker) भी कहते हैं। इससे स्पन्दन संकुचन प्रेरणा स्वतः उत्पन्न होती है। इसके तन्तुओं में 55 से 60 मिलीवोल्ट का विश्राम विभव (resting potential) होता है, जबकि हृदय पेशियों में यह -85 से 95 मिली वोल्ट और हृदय में फैले विशिष्ट चालक तन्तुओं में -90 से -100 मिलीवोल्ट होता है। शिरा अलिन्द पर्व (SAN) से सोडियम आयनों के लीक होने से हृदय स्पन्दन प्रारम्भ होता है। शिरा अलिन्द पर्व की लयबद्ध उत्तेजना प्रति मिनट 72 स्पन्दनों की एक सामान्य विराम दर पर जीवनपर्यन्त चलती रहती है।

 

प्रश्न 11. अतिन्द नितय गाँठ (AVN) तथा अतिन्द नितय बण्डल (AVB) का हृदय के कार्य में क्या महत्त्व है?

उत्तर

अलिन्द निलंय गाँठ (Auriculo ventricular Node) — शिरा अलिन्द पर्व के तन्तु अन्त में अपने चारों ओर के अलिन्द पेशी तन्तुओं के साथ मिलकर शिरा अलिन्द पर्व तथा अलिन्द निलय गाँठ (AVN) के बीच एक अन्तरापर्वीय पथ का निर्माण करते हैं। अलिन्द निलय गाँठ अन्तराअलिन्द पट के दाहिने भाग में हृद कोटर (कोरोनरी साइनस) के छिद्र के निकट होती है। अलिन्द निलय गाँठ के पेशीय तन्तु अलिन्द निलय बण्डल (bundle of His or Atrio Ventricular Bundle, AVB) से मिलकर निलय में दाएँ-बाएँ बँट जाते हैं। इनसे पुरकिन्जे तन्तुओं (Purkinje fibres) का निर्माण होता है।

शिरा अलिन्द पर्व (SAN) में उत्पन्न संकुचन एवं शिथिलन के उद्दीपन अलिन्द निलय गाँठ (AVN) तथा अलिन्द निलय बण्डल (AVB) या हिस का बण्डल (Bundle of His) से होते हुए निलय में स्थित पुर किन्जे तन्तुओं में पहुँचते हैं। इसके फलस्वरूप हृदय के अलिन्द तथा निलय में क्रमश: संकुचन एवं शिथिलन होता रहता है। हृदय शरीर के विभिन्न भागों से रक्त को एकत्र करके पुनः पम्प करता रहता है।

 

प्रश्न 12. हृद चक्र तथा हृद निकास को परिभाषित कीजिए।

उत्तर

हृद चक्र (Cardiac Cycle) — एक हृदय स्पन्दन के आरम्भ से दूसरे स्पन्दन के आरम्भ होने के बीच के घटनाक्रम को हृद चक्र (cardiac cycle) कहते हैं। इस क्रिया में दोनों अलिन्दों तथा दोनों निलयों का प्रकुंचन एवं अनुशिथिलन सम्मिलित होता है। हृदय स्पन्दन एक मिनट में 72 बार होता है अतः एक हृदय चक्र का समय 0.8 सेकण्ड होता है।

हृद निकास (Cardiac Output) — हृदय प्रत्येक हृद चक्र में लगभग 70 मिली रक्त पम्प करता है, इसे प्रवाह आयतन (stroke volume) कहते हैं। प्रवाह आयतन को हृदय दर से गुणा करने पर जो मात्रा आती है, उसे हृद निकास (cardiac output) कहते हैं।

हृद निकास = हृदय दर × प्रवाह आयतन

अत: हृद निकास प्रत्येक निलय द्वारा रक्त की मात्रा को प्रति मिनट बाहर निकालने की क्षमता है जो स्वस्थ मनुष्य में लगभग 5 लीटर होती है। खिलाड़ियों का हृद निकास सामान्य मनुष्य से अधिक होता है।

 

प्रश्न 13. हृदय ध्वनियों की व्याख्या कीजिए।

उत्तर

हृदय की ध्वनियाँ (Heart Sounds)— दाएँ एवं बाएँ निलयों में आकुंचन एकसाथ होता है, इसके फलस्वरूप त्रिवलनी (tricuspid) तथा द्विवलनी (bicuspid) कपाट एक तीव्र ध्वनि 'लब' (lubb) के साथ बन्द होते हैं।

निलयों में आकुंचन दबाव के कारण रक्त दोनों धमनी चापों में पम्प हो जाता है। आकुंचन के समाप्त होने पर ज्यों ही रक्त धमनी चापों से निलय की ओर गिरता है तो धमनी चापों के आधार पर स्थित अर्द्धचन्द्राकार कपाट अपेक्षाकृत हल्की ध्वनि 'डप' (dup) के साथ बन्द हो जाते हैं। हृदय की इन्हीं ध्वनि 'लब' एवं 'डप' को स्टेथोस्कोप (stethoscope) से सुनकर हृदय सम्बन्धी रोगों का निदान किया जाता है।

 

प्रश्न 14. एक मानक ईसीजी को दर्शाइए तथा उसके विभिन्न खण्डों का वर्णन कीजिए।

उत्तर

विद्युत हृद लेखन (Electrocardiography) – विद्युत हद लेख (ECG) एक तरंगित आलेख होता है, इसमें एक सीधी रेखा से तीन स्थानों पर तरंगें उठी दिखाई देती हैं—P लहर, QRS सम्मिश्र (QRS Complex) तथा T तरंग (T-wave) । P तरंग ऊपर की ओर उठी एक छोटी-सी लहर होती है। जो 0.1 सेकण्ड के अलिन्दीय संकुचन (atrial systole को दर्शाती है। इसके समाप्त होने के लगभग 0.1 सेकण्ड बाद QRS सम्मिश्र की लहर प्रारम्भ होती है।

ये तीन तरंगें होती हैं— नीचे की ओर Q तरंग, इससे उठी बड़ी R तरंग तथा इससे जुड़ी नीचे की ओर छोटी S तरंग | QRS सम्मिश्र निलयी संकुचन के 0-3 सेकण्ड का सूचक होता है। फिर निलयी संकुचन की अन्तिम प्रावस्था और इनके क्रमिक प्रसारण के प्रारम्भ की सूचक T तरंग होती है।

ECG में प्रदर्शित तरंगों तथा उनके मध्यावकाशों के तरीके का अध्ययन करके हृदय की दशा का ज्ञान होता है।

इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (ECG) प्राप्त करने के लिए, हृदय के समीपवर्ती क्षेत्र में विशिष्ट स्थानों पर यदि इलेक्ट्रोड्स लगा दिए जाएँ तो हृदय संकुचन के समय जो विद्युत विभव शिरा अलिन्द गाँठ (S-A node) से उत्पन्न होकर विशिष्ट संवाही पेशी तन्तुओं (special conducting muscular fiber) से गुजर कर हृदय के मध्य स्तर की पेशियों के संकुचन को प्रेरित करता है, इसे नापा जा सकता है। इसे नापने के लिए जिस यन्त्र का प्रयोग किया जाता है, उसे विद्युत हृद लेखी (electro cardiograph) कहते हैं।

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