NCERT Solutions for Chapter 8 भारतीय राजनीति: नये बदलाव Class 12 Political Science
एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter 8 भारतीय राजनीति: नये बदलाव Class 12 स्वतंत्र भारत में राजनीति-II
अभ्यास
प्रश्न 1. उन्नी-मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है। आप इन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें:
(क) जनता दल का गठन
(ख) बाबरी मस्जिद का विध्वंस
(ग) इंदिरा गाँधी की हत्या
(घ) राजग सरकार का गठन
(ङ) संप्रग सरकार का गठन
(च) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम
उत्तर
कालक्रम के अनुसार निम्नलिखित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है-
(i) जनता दल का गठन
(ii) इंदिरा गाँधी की हत्या
(iii) बाबरी मस्जिद का विध्वंस
(iv) राजग सरकार का गठन
(v) गोधरा की दुर्घटना और उसके परिणाम
(vi) संप्रग सरकार का गठन।
(क) सर्वानुमति की राजनीति |
(i) शाहबानो मामला |
(ख) जाति आधारित दल |
(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार |
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय |
(iii) गठबंधन सरकार |
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत उत्तर |
(iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति |
उत्तर
(क) सर्वानुमति की राजनीति |
(iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति |
(ख) जाति आधारित दल |
(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार |
(ग) पर्सनल लॉ और लैंगिक न्याय |
(i) शाहबानो मामला |
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत |
(iii) गठबंधन सरकार |
उत्तर
1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे इस प्रकार से थे-
- लोकसभा के आम चुनाव में कांग्रेस की हार हुई। उसे सिर्फ 197 सीटें मिलीं। इस कारण सरकारें अस्थिर रहीं और 1991 में पुनः मध्यावधि चुनाव हुआ । कांग्रेस की प्रमुखता समाप्त होने के कारण देश के राजनीतिक दलों में आपसी जुड़ाव बढ़ा। राष्ट्रीय मोर्चे की दो बार सरकारें बनी परन्तु कांग्रेस द्वारा समर्थन खींचने और विरोधी दलों में एकता के अभाव के कारण देश में राजनैतिक अस्थिरता रही।
- देश राजनीति में मंडल मुद्दे का उदय हुआ । इसने 1989 के बाद की राजनीति में अहम् भूमिका निभाई। सभी पार्टियाँ वोटों की राजनीति करने लगीं। इसलिए पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण दिए जाने के मामले में अधिकतर दलों में आपसी जुड़ाव हुआ।
- 1990 के बाद से ही विभिन्न दलों की सरकारों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाई वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। आर्थिक सुधार और नई आर्थिक नीति के कारण देश के अनेक दक्षिण पंथी राष्ट्र और क्षेत्रीय दल परस्पर जुड़ने लगे। इस संदर्भ में दो प्रवृत्तियाँ उभरकर आई। कुछ दल गैर कांग्रेसी गठबंधन और कुछ दल गैर भाजपा गठबंधन के समर्थक बने।
- दिसंबर 1992 में अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचा (बाबरी मस्जिद के रूप में प्रसिद्ध) विध्वंस कर दिया गया। इस घटना के बाद भारतीय राष्ट्रवाद और धर्म निरपेक्षता पर बहस तेज हो गई। इन वदलावों का संबंध भाजपा के उदय और हिंदुत्व की राजनीति से है।
उत्तर
पक्ष में तर्कः गठबंधन की राजनीति के भारत में चल रहे नए दौर में राजनैतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठबंधन नहीं करते। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क हैं-
- 1977 में जे.पी. के आह्वान पर जो जनता दल (जनता पार्टी) बना था उसमें कांग्रेस के विरोधी प्रायः सी. पी. आई. को छोड़कर अधिकांश विपक्षी दल जिनमें भारतीय जनसंघ, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, भारतीय क्रांति दल, तेलगू देशम, समाजवादी पार्टी, अकाली दल, आदि शामिल थे। इन सभी दलों को हम एक ही विचारधारा वाले दल नहीं कह सकते।
- जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद केन्द्र में राष्ट्रीय मोर्चा बना जिसमें एक ओर जनता दल के वी. पी. सिंह तो दूसरी ओर उन्हें समर्थन देने वाले वामपंथी और भाजपा जैसे तथाकथित हिन्दुत्व समर्थक, गाँधीवादी, राष्ट्रवादी दल भी थे। कुछ ही महीनों के बाद वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री नहीं रहे तो केवल मात्र सात महीनों के लिए चन्द्रशेखर को कांग्रेस ने समर्थन | दे दिया। ये वही चन्द्रशेखर जी थे जो इंदिरा, उनके द्वारा लगाए गए आपातकालीन संकट के कट्टर विरोधी और जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्हें और उनके नेता मोरारजी को कारावास की सजाएँ भुगतनी पड़ी थीं।
- कांग्रेस की सरकार 1991 से 1996 तक नरसिंह राव के नेतृत्व में अल्पमत में होते हुए भी इसलिए जारी रही क्योंकि अनेक ऐसे दलों ने उन्हें बाहर से ऑक्सीजन दी ताकि तथाकथित साम्प्रदायिक शक्तियाँ सत्ता में न आ सकें। ये शक्तियाँ केरल में साम्प्रदायिक शक्तियों से सहयोग प्राप्त करती रही हैं या जाति प्रथा पर टिकी हुई पार्टियों से उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में समर्थन लेती रही हैं।
- अटल बिहारी जी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एन.डी.ए.) की सरकार लगभग 6 वर्षों तक चली लेकिन उसे जहाँ एक ओर अकालियों ने तो दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस, बीजू पटनायक कांग्रेस, कुछ समय के लिए समता पार्टी, जनता दल, जनता पार्टी आदि ने भी सहयोग और समर्थन दिया। यही नहीं जम्मू-कश्मीर के फारूख अब्दुल्ला, एक समय वाजपेयी सरकार के कट्टर समर्थक माने जाते रहे।
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि राजनीति में कोई किसी का स्थायी शत्रु नहीं होता। हकीकत में अवसरवादिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश में कुमारी सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर संयुक्त सरकार बनाती रही हैं, महाराष्ट्र में शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ऐसे निर्दलीय अथवा लघु क्षेत्रीय दलों के सहयोग में चलती रहीं जो भाजपा को चुनावों मंचों और अभियानों में भला-बुरा कहते रहे हैं।
हँसी तो तब आती है जब राज्य विधान सभा के चुनाव के दौरान गठबंधन या राजनैतिक दल परस्पर कीचड़ उछालते हैं। लेकिन उसी काल या दिनों के दौरान केन्द्र में हाथ मिलाते और समर्थन लेते देते हुए दिखाई देते हैं। यह मजबूरी है या लोकतंत्र में भोली-भाली लेकिन जागरूक जनता का मजाक उड़ाने का एक दर्दनाक प्रयास कहा जा सकता है।
विपक्ष में तर्क:
- हम इस कथन से सहमत नहीं है। गठबंधन की राजनीति के नए दौर में भी वामपंथ के चारों दल अर्थात् सी.पी.एम., सी. पी.आई. फारवर्ड ब्लॉक, आर. एस. ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ नहीं मिलाया। वह उसे अब भी राजनीतिक दृष्टि से अस्पर्शनीय पार्टी मानती है।
- समाजवादी पार्टी, वामपंथी मोर्चा जैसे क्षेत्रीय दल किसी भी उस प्रत्याशी को खुला समर्थन नहीं देना चाहते जो एन.डी.ए. अथवा भाजपा का प्रत्याशी हो क्योंकि उनकी वोटों की राजनीति को ठेस पहुँचती है।
- कांग्रेस पार्टी ने अधिकांश मोर्चा पर बी.जे.पी. विरोधी और बी.जे.पी. ने कांग्रेस विरोधी रुखा अपनाया है।
उत्तर
(i) आपातकाल के दौरान भाजपा नाम की कोई पार्टी अस्तित्व में नहीं थी। 1977 में बनी पहली विपक्षी पार्टी जनता पार्टी की सरकार में भारतीय जनसंघ का प्रतिनिधित्व अवश्य था। कालांतर में 1980 में भारतीय जनसंघ को समाप्त कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष बने।
(ii) श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या 1984 में कर दी गई। चुनावों में कुछ सहानुभूति की लहर होने के कारण कांग्रेस को जबरदस्त सफलता मिली जबकि भारतीय जनता पार्टी को केवल दो सीटें ही प्राप्त हुई। स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से चुनाव हार गए। सफलता ने अभी भाजपा के कदम नहीं चूमे थे। इस बीच रामजन्म भूमि का ताला खुलने का अदालती आदेश आ चुका था। कांग्रेस सरकार ने वहाँ का ताला खुलवाया। भाजपा ने इसका राजनीतिक लाभ उठाने का फैसला किया।
(iii) 1989 के चुनावों में इसे आशा से अधिक सफलता मिली और इसने कांग्रेस का विकल्प बनने की इच्छा शक्ति दिखाई। जो भी हो कांग्रेस से बाहर हुए वी. पी. सिंह ने जनता दल का गठन किया तथा 1989 के चुनाव लड़े। उन्हें पूर्ण बहुमत नहीं मिला पर भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा की सरकार का गठन कराया। भाजपा के नेता लालकृष्ण अडवाणी ने हिन्दुत्व तथा राम मंदिर के मुद्दे को लेकर एक रथ यात्रा का आयोजन किया। यह यात्रा जब बिहार से गुजर रही थी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने इसे रोक दिया। भाजपा ने इस मुद्दे पर केन्द्र से समर्थन वापस ले लिया और वी. पी. सिंह की सरकार जाती रही।
(iv) भाजपा ने 1991 तथा 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्यौता मिला। लेकिन अधिकांश दल भाजपा की कुछ नीतियों के खिलाफ थे और इस वजह से भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। आखिरकार भाजपा एक गठबंध (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन - राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आयी और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रही। फिर, 1999 में इस गठबंधन ने दोबारा सत्ता हासिल की। राजग की इन दोनों सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 1999 की राजग सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। 2004 में पुनः चुनाव हुए लेकिन पार्टी की अपेक्षित सफलता नहीं मिली।
उत्तर
हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ कि यद्यपि कांग्रेस का पतन हो गया है या कहिए कि उसका केन्द्र एवं अधिकांश प्रांतों में जो राजनैतिक सत्ता का असर आजादी से लेकर 1960 तक कायम रहा वह अब वैसा नहीं दिखाई देता तथापि वह आज भी लोकसभा में सबसे बड़ा दल है। उसी का अध्यक्ष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (सप्रंग) का अध्यक्ष है और उसी का प्रधानमंत्री है। अनेक राज्यों में आज भी वह सत्ता में है। लेकिन देश का राजनैतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि 1960 के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस के एकछत्र राज को चुनौती मिली थी लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने भारतीय राजनीति पर अपना प्रभुत्व फिर से कायम किया। नब्बे के दशक में कांग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली। जो भी हो, इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस की जगह कोई दूसरी पार्टी प्रमुख हो गई।
अभी भी कांग्रेस पार्टी देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी मानी जाती है। 2004 के चुनावों में कांग्रेस भी पूरे जोर के साथ गठबंध न में शामिल हुई। राजग की हार हुई और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया। संप्रग को वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस का पुनरुत्थान भी हुआ। 1991 के बाद इस दफे पार्टी के सीटों की संख्या एक बार फिर बढ़ी। जो भी हो, 2004 के चुनावों में राजग और संप्रग को मिले कुल वोटों का अन्तर बड़ा कम था। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस ने फिर अपनी पुरानी रंगत दिखाई और पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत हासिल की। यद्यपि उसे सहयोगियों की अभी भी आवश्यकता है।
उत्तर
1. दलीय व्यवस्थाः अनेक लोग सोचते हैं कि सफल लोकतंत्र के लिए दलीय व्यवस्था आवश्यक है। वे इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं:- दो दलीय व्यवस्था से साधारण बहुमत के दोष समाप्त हो जाते हैं और जो भी प्रत्याक्षी या दल जीतता है वह आधे से अधिक अर्थात् 50 प्रतिशत से ज्यादा (मतदान किए गए कुल मतों का अंश) होते हैं।
- देश में सभी को पता होता है कि यदि सत्ता एक दल से दूसरे दल के पास जाएगी तो कौन-कौन प्रमुख पदों प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, विदेश मंत्री आदि पर आएँगे। प्रायः इंग्लैंड और अमेरिका में ऐसा ही होता है।
- सरकार ज्यादा स्थायी रहती है और वह गठबंधन की सरकारों के समान दूसरे दलों की बैसाखियों पर टिकी नहीं होती । वह उनके निर्देशों को सरकार गिरने के भय से मानने के लिए बाध्य नहीं होती। बहुदलीय प्रणालियों में देश में फूट पैदा होती है। दल जातिगत या व्यक्ति विशेष के प्रभाव पर टिके होते हैं और सरकार के काम में अनावश्यक विलंब होता रहता है।
- बहुदलीय प्रणाली में भ्रष्टाचार फैलता है। सबसे ज्यादा कुशल व्यक्तियों की सेवाओं का अनुभव प्राप्त नहीं होता और जहाँ साम्यवादी देशों की तरह केवल एक ही पार्टी की सरकार होती है तो वहाँ दल विशेष या वर्ग विशेष की तानाशाही नहीं होती।
- भारत जैसे विशाल तथा विभिन्नताओं वाले देश के लिए कई राजनीतिक दल लोकतंत्र की सफलता के लिए परम आवश्यक हैं। प्रजातंत्र में दलीय प्रथा प्राणतुल्य होती है। राजनीतिक दल जनमत का निर्माण करते हैं। चुनाव लड़ते हैं, सरकार बनाते हैं, विपक्ष की भूमिका भी अदा करते हैं।
- दलीय प्रणाली जनता को राजनीतिक शिक्षा प्रदान करती है। राजनीतिक दल सभाएँ करते हैं, सम्मेलन करते हैं, जलूस निकालते हैं तथा अपने दल की नीतियाँ बनाकर जनता के सामने प्रचार करते हैं। सरकार की आलोचना करते हैं। संसद में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार जनता को राजनीतिक शिक्षा प्राप्त होती रहती है।
- दलीय प्रणाली के कारण सरकार में दृढ़ता आती है क्योंकि दलीय आधार पर सरकार को समर्थन मिलता रहता है।
- विपक्षी दल सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाते हैं।
- दलीय प्रणाली में शासन और जनता दोनों में अनुशासन बना रहता है। राष्ट्रीय हितों पर अधिक ध्यान दिया जाता है।
- अनेक राजनीतिक दल राजनीतिक कार्यों के साथ-साथ सामाजिक सुधार के कार्य भी करते हैं।
भारत की दलगत राजनीति ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस-प्रणाली ने अपना खात्मा ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस के जमावड़े के बिखर जाने से आत्म-प्रतिनिधित्व की नयी प्रवृत्ति का भी ज़ोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे। राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनीतिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरीके से विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट करें....
- जोया हसन
(क) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं?
(ख) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना क्यों ज़रूरी है।
(ग) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनीतिक दलों की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की?
उत्तर
विद्यार्थी स्वयं करें।