NCERT Solutions for Chapter जन आंदोलनों का उदय Class 12 Political Science

Chapter जन आंदोलनों का उदय NCERT Solutions for Class 12 Political Science (Swatantra Bharat me Rajiniti) are prepared by our expert teachers. By studying this chapter, students will be to learn the questions answers of the chapter. They will be able to solve the exercise given in the chapter and learn the basics. It is very helpful for the examination. 

एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter जन आंदोलनों का उदय Class 12 स्वतंत्र भारत में राजनीति-II

अभ्यास


प्रश्न 1. चिपको आंदोलन के बारे में निम्नलिखित में कौन-कौन से कथन गलत हैं:

(क) यह पेड़ों की कटाई को रोकने के लिए चला एक पर्यावरण आंदोलन था।

(ख) इस आंदोलन ने पारिस्थितिकी और आर्थिक शोषण के मामले उठाए।

(ग) यह महिलाओं द्वारा शुरू किया गया शराब-विरोधी आंदोलन था।

(घ) इस आंदोलन की माँग थी कि स्थानीय निवासियों का अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण होना चाहिए।

उत्तर

(क) सही,

(ख) सही,

(ग) गलत,

(घ) सही


प्रश्न 2. नीचे लिखे कुछ कथन गलत हैं। इनकी पहचान करें और ज़रूरी सुधार के साथ उन्हें दुरुस्त करके दोबारा लिखें:

(क) सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को हानि पहुँचा रहे हैं।

(ख) सामाजिक आंदोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।

(ग) भारत के राजनीतिक दलों ने कई मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ।

उत्तर

(क) यह कथन गलत है क्योंकिः सामाजिक आंदोलन भारत के लोकतंत्र को हानि नहीं पहुँचा रहे ।

(ख) यह कथन ठीक है क्योंकिः सामाजिक आंदोलनों की मुख्य ताकत विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच व्याप्त उनका जनाधार है।

(ग) यह कथन सही है क्योंकि भारत के राजनीतिक दलों ने कई सामजिक-आर्थिक मुद्दों को नहीं उठाया। इसी कारण सामाजिक आंदोलनों का उदय हुआ।


प्रश्न 3. उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में (अब उत्तराखंड) 1970 के दशक में किन कारणों से चिपको आंदोलन का जन्म हुआ? इस आंदोलन का क्या प्रभाव पड़ा ?

उत्तर

चिपको आंदोलन: 'चिपको आंदोलन' बड़ा अजीब सा नाम लगता है। साधारणतः चिपके रहने शब्द का प्रयोग कुर्सी से चिपके रहने वाले नेताओं के लिए किया जाता है। परंतु यह आंदोलन पेड़ों से चिपके रहने का आह्वान किए जाने के लिए किया गया था। इसका आरंभ उत्तर प्रदेश के एक-दो गाँवों (अब ये गाँव उत्तराखंड में हैं) से आरंभ हुआ था और शीघ्र ही यह सारे देश में प्रसिद्ध हो गया और जंगलों की अंधाधुंध कटाई का विरोध करने वाला आंदोलन कहलाया। इस आंदोलन के अंतर्गत गाँवों के लोगों ने जंगलों की व्यावसायिक कटाई का सामूहिक विरोध किया था।

ऐसे हुआ कि गाँव के लोगों ने अपनी खेती-बाड़ी में प्रयोग किए जाने वाले हथियारों को बनाने के लिए वन विभाग से Ash tree काटने की इजाजत माँगी। परंतु वन विभाग ने उन्हें इसकी स्वीकृति नहीं दी। इसी दौरान वन विभाग ने खेल का सामान बनाने वाली एक कंपनी को भूमि का वही टुकड़ा पेड़ काटने और खेल का सामान बनाने के लिए अर्थात् व्यावसायिक रूप में प्रयोग करने के लिए दे दिया। उस कंपनी ने जब पेड़ काटने आरंभ किए तो गाँव वालों को इस की जानकारी मिली और उनमें सरकार के विरुद्ध रोप पैदा हुआ तथा उन्होंने पेड़ों की कटाई का सामूहिक रूप से विरोध किया। विरोध का यह तरीका अपनाया गया कि गाँव का प्रत्येक निवासी, स्त्री या पुरुष पेड़ से चिपक जाएँ और इसे कटने न दें। शीघ्र ही यह विरोध सारे राज्य के पहाड़ी इलाकों में फैल गया और इसका प्रभाव दूसरे राज्यों पर भी पड़ा। इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा।

समय के साथ आंदोलन ने कई और मुद्दों को भी साथ ले लिया। क्षेत्र के पारिस्थितिकी की और आर्थिक मुद्दे भी इससे जुड़े। इस आंदोलन के अंतर्गत ग्रामीण जनता ने कई माँगें रखी जो निम्नलिखित हैं-

  1. स्थानीय लोगों का वहाँ के प्राकृतिक संसाधनों जैसे कि जंगल, जल, भूमि, खनिज पदार्थों पर अधिक अधिकार है और इन पर उनका नियंत्रण होना चाहिए।
  2. पेड़ों की कटाई का ठेका बाहरी लोगों को नहीं दिया जाना चाहिए, केवल स्थानीय लोगों को ही इस ठेके को प्राप्त करने का अधिकार होना चाहिए।
  3. यह भी माँग रखी गई कि ग्रामीण जीवन के विकास और आर्थिक समृद्धि के लिए गाँवों में लघु उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए और इसके लिए ग्रामीण लोगों को रियायती दरों पर सामग्री तथा औजार दिए जाएँ।
  4. पहाड़ी क्षेत्रों की सुंदरता पेड़ों से ही है और पेड़ों की कटाई इस सुंदरता को हानि पहुँचाती है तथा पर्यावरण के संतुलन को नष्ट करती है। इसलिए इस परिस्थिति के संतुलन को हानि पहुँचाए बिना ही विकास गतिविधियों को संचालित किया जाए।
  5. इस आंदोलन में भूमिहीन वन कर्मचारियों के कम वेतन तथा उनकी कमजोर आर्थिक स्थिति का मुद्दा भी जोड़ लिया गया और वह माँग की गई कि वन कर्मचारियों तथा मजदूरों के न्यूनतम वेतन की वैधानिक व्यवस्था की जाए।
  6. आंदोलन में भागीदारी करने वाली महिलाएँ पुरुषों की शराब पीने की आदत से भी परेशान थीं और चिपको आंदोलन में उनकी अधिक भागीदारी थी। अतः शराब बंदी का मुद्दा भी इसके अंतर्गत उठाया गया और क्षेत्र में शराबबंदी की माँग की गई।

प्रभावः चिपको आंदोलन 1973 में दो गांवों से आरम्भ होकर सारे राज्य में विशेषकर पहाड़ी क्षेत्रों में फैल गया और इसमें पेड़ों की कटाई पर रोक लगाए जाने के साथ और भी कई सामाजिक मुद्दे शामिल हो गए। अंततः इसमें लोगों को सफलता मिली।

  • सरकार ने अगले 15 वर्षों के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में पेड़ों की कटाई पर रोक लगा दी।
  • इस आंदोलन ने पहाड़ी क्षेत्र के लोगों, विशेषकर महिलाओं में अपने अधिकारों के प्रति चेतना जागृत की।
  • चिपको आंदोलन ने देश के अन्य राज्यों में भी जन आंदोलन के आरंभ करने में भूमिका निभाई क्योंकि अन्य क्षेत्रों को महसूस हुआ कि वे किसी राजनीतिक दल का सहारा लिए बिना, अपने स्वयं के प्रयासों से अपनी कठिनाइयों की अभिव्यक्ति कर सकते हैं और सामूहिक प्रयास से उनका समाधान करवा सकते हैं।
  • इस क्षेत्र में शराबबंदी के बारे में भी जन चेतना उत्पन्न हुई।


प्रश्न 4. भारतीय किसान यूनियन किसानों की दुर्दशा की तरफ ध्यान आकर्षित करने वाला अग्रणी संगठन है। नब्बे के दशक में इसने किन मुद्दों को उठाया और इसे कहाँ तक सफलता मिली?

उत्तर

भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए मुद्दे निम्नलिखित है-

  1. बिजली की दरों में बढ़ोतरी का विरोध करना ।
  2. 1980 के दशक के उत्तरार्ध से भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के प्रयास हुए और इस क्रम में नगदी फसलों के बाजार को संकट का सामना करना पड़ा। भारतीय किसान यूनियन ने गन्ने और गेहूँ की सरकारी खरीद मूल्य में बढ़ोत्तरी करने, कृषि उत्पादों की अंतर्राज्यीय आवाजाही पर लगी पाबंदियाँ हटाने, समुचित दर पर गारंटीशुदा बिजली आपूर्ति करने तथा किसानों के लिए पेंशन का प्रावधान करने की मांग की।

सफलताः भारतीय किसान यूनियन द्वारा उठाए गए मुद्दों में निम्नलिखित सफलताएँ मिलीं-

  • भारतीय किसान यूनियन के कार्यकर्त्ता और नेता जिला समाहर्त्ता के दफ्तर के बाहर तीन हफ्तों तक डेरा डाले रहे। इसके बाद इनकी माँग मान ली गई। किसानों का यह बड़ा अनुशासित धरना था और जिन दिनों वे धरने पर बैठे थे उन दिनों आस-पास के गांवों से उन्हें निरंतर राशन पानी मिलता रहा। मेरठ के इस धरने को ग्रामीण शक्ति का या कहा जाए कि काश्तकारों की शक्ति का एक बड़ा प्रर्दशन माना गया।
  • 1990 के दशक के आरम्भिक वर्षों तक भारतीय किसान यूनियन ने अपने को सभी राजनीतिक दलों से दूर रखा था। यह अपने सदस्यों की संख्या बल के दम पर राजनीति में एक दबाव समूह की तरह सक्रिय था। इस संगठन ने राज्यों में मौजूद अन्य किसान संगठनों का साथ लेकर अपनी कुछ अन्य मांगे मनवाने में भी सफलता पाई। इस अर्थ में किसान आंदोलन अस्सी के दशक में सबसे ज्यादा सफल सामाजिक आंदोलन था।


प्रश्न 5. आंध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान कुछ गंभीर मुद्दों की तरफ खींचा। ये मुद्दे क्या थे?

उत्तर

आंध्र प्रदेश में चले शराब-विरोधी आंदोलन ने देश का ध्यान निम्नलिखित गंभीर मुद्दों की ओर खींचा-

  1. शराब पीने के कारण पुरुष शारीरिक और मानसिक रूप से काफी कमजोर होते जा रहे थे और इसीलिए वे खेतीबाड़ी के काम में अधिक भागीदारी नहीं करते थे जिससे कृषि उत्पाद पर बुरा प्रभाव पड़ता था ।
  2. शराब पीने के कारण परिवारों की आर्थिक दशा बुरी तरह प्रभावित थी। लोग उधार लेकर भी शराब पीते थे और कर्ज के बोझ से दबे हुए थे।
  3. शराब ठेकेदार उधार देकर भी शराब पीने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते थे और कई बार खेती की भूमि भी कर्ज उतारने में चली जाती थी।
  4. पुरुष शराब में श्रुत रहने के कारण भी खेती नहीं जा पाते थे और घरेलू कामों के साथ खेती-बाड़ी का काम भी महिलाओं के सिर पर बढ़ता जा रहा था।
  5. अधिक शराब पीने से पुरुष घर में मारपीट भी करते थे और महिलाओं को पीटे जाने तथा बच्चों पर भी मारपीट करने की घटनाएँ दैनिक रूप से घटने लगीं।
  6. शराबखोरी और मारपीट से पारिवारिक अर्थव्यवस्था चरमराने लगी। इतना ही नहीं घरों में तनाव का वातावरण भी फैलने लगा और लगभग सारे गांव की महिलाएँ इससे तनावग्रस्त तथा परेशान रहने लगी थीं।

 

प्रश्न 6. क्या आप शराब-विरोधी आंदोलन को महिला आंदोलन का दर्जा देंगे? कारण बताएँ ।

उत्तर

शराब-विरोधी आंदोलन को निश्चय ही महिला आंदोलन का दर्जा दिया जा सकता है क्योंकि यह आंदोलन वास्तव में महिलाओं की स्थिति में सुधार करवाने के लिए किया गया था। पुरुष जब शराब की आदत के कारण काम नहीं करते, नशे में धुत रहते हैं, परिवार की आय कम होने लगती है और घर में मारपीट भी होने लगती है इन सब बातों का सबसे बुरा प्रभाव महिलाओं की स्थिति पर पड़ता है। उन्हें अधिक काम करना पड़ता है, कम आमदनी में घर का खर्च चलाना पड़ता है, खुद भूखे रहकर बच्चों तथा पुरुषों को खाना देना होता है (भारतीय संस्कृति के अनुसार) और पुरुष के हाथों मार भी खानी पड़ती है, गाली तथा. अपशब्द भी सुनने पड़ते हैं, कभी-कभी पुरुष स्त्री को घर से बाहर निकालने की धमकी भी देता है। इन सब बातों को देखते हुए शराबबंदी की माँग करना महिला आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष या मुद्दा है।


प्रश्न 7. नर्मदा बचाओ आंदोलन ने नर्मदा घाटी की बाँध परियोजनाओं का विरोध क्यों किया?

उत्तर

नर्मदा बचाओ आंदोलन ने कई कारणों के आधार पर नर्मदा पर बनाए जाने वाले इस विशाल बाँध का विरोध किया है-

  1. बाँध के निर्माण से संबंधित राज्यों के 245 से अधिक गांवों को जलसमाधि मिलती थी। इन गांवों के लोगों के पुनर्वास का प्रश्न सबसे पहला मुद्दा था जिस पर गांववालों ने विरोध आरंभ किया था। इन प्रभावित होने वाले लोगों की संख्या 2.5 लाख से अधिक थी।
  2. नर्मदा बचाओ आंदोलन के अंतर्गत यह भी सवाल उठाया गया कि विकास का जो प्रारूप अपनाया जा रहा है, वह उचित है या नहीं, इस पर भी पूरी तरह से विचार किया जाए। बाँधों और डैमों के निर्माण पर होने वाले खर्चों, उनसे समाज के विभिन्न वर्गों, गांवों तथा परिवारों द्वारा भुगते जाने वाले परिणामों का भी पूरी तरह से मूल्यांकन किए बिना बाँध बनाने का निर्णय करना उचित नहीं । विकास की सामाजिक कीमत का सही-सही मूल्यांकन किया जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि बाँध समाज को विकसित करने की बजाए नष्ट करने की भूमिका निभाते हैं क्योंकि इनसे बहुत बड़ी संख्या में लोग विस्थापित होते हैं, उनकी आजीविका पर प्रभाव पड़ता है और विस्थापित लोगों का सांस्कृतिक शोषण भी होता है क्योंकि पुनर्वास के बाद लोग न तो आजीविका की दृष्टि से दूसरी जगह आसानी से जम पाते हैं और न ही सांस्कृतिक दृष्टि से। उनका सांस्कृतिक विकास प्रभावित होता है।
  3. पर्यावरण के प्रति सतर्क संगठनों का यह कहना है कि बाँधों के निर्माण से प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता है, पर्यावरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है और जलवायु में भी परिवर्तन आता है।


प्रश्न 8. क्या आंदोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतंत्र मज़बूत होता है? अपने उत्तर की पुष्टि में उदाहरण दीजिए।

उत्तर

हाँ, आंदोलन और विरोध की कार्रवाइयों से देश का लोकतंत्र मजबूत होता है। उदाहरण-

  1. चिपको आंदोलन अहिंसक, शांतिपूर्ण चलाया गया एक व्यापक जन-आंदोलन था। इसमें पेड़ों की कटाई, वनों का उजड़ना रुका। पशु-पक्षियों, गिरिजनो को जल, जगल, जमीन और स्वास्थ्यवर्धक पर्यावरण मिला। सरकार लोकतांत्रिक माँगों के सामने झुकी
  2. शराव विरोधी आंदोलन ने नशाबंदी और मद्यनिषेध के मुद्दे पर वातावरण तैयार किया। महिलाओं से संबंधित अनेक समस्याएँ जैसे- उत्पीड़न, दहेज प्रथा, घरेलू समस्या और महिलाओं को विधायिकाओं में आरक्षण दिए जाने की माँग उठी। संविधान में कुछ संशोधन हुए और कानून बनाए गए।
  3. लित पँथर्स के नेताओं द्वारा चलाए गए आंदोलनों, सरकार विरोधी साहित्यकारों की कविताओं और रचनाओं ने, आदिवासी, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़ी जातियों में चेतना पैदा की। दलित पैंथर्स जैसे राजनीतिक दल और संगठन बने। जाति भेद-भाव और छुआछूत को धक्का लगा। समाज में समानता, स्वतंत्रता, सामाजिक त्याग, आर्थिक न्याय, राजनैतिक न्याय को सुदृढ़ता मिली।
  4. वामपंथियों द्वारा शांतिपूर्ण चलाए गए किसान और मजदूर आंदोलन द्वारा जन साधारण में जागृति, राष्ट्रीय कार्यों में भागीदारी और सर्वहारा वर्ग की उचित मांगों के लिए सरकार को जगाने में सफलता मिली।


प्रश्न 9. वलित पैंथर्स ने कौन-से मुद्दे उठाए ?

उत्तर

बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक के शुरुआती सालों से शिक्षित दलितों की पहली पीढ़ी ने अनेक मंचों से अपने हक की आवाज उठायो। इनमें ज्यादातर शहर की झुग्गी बस्तियों में पलकर बड़े हुए दलित थे। दलित हितों को दावेदारी के इसी क्रम में महाराष्ट्र में दलित युवाओं का एक संगठन 'दलित पैंथर्स' 1972 में बना।

दलित पैंथर्स द्वारा उठाए गए मुद्दे निम्नलिखित हैं-

  • आजादी के बाद के सालों में दलित समूह मुख्यतया जाति आधारित असमानता और भौतिक साधनों के मामले में अपने साथ हो रहे अन्याय के खिलाफ लड़ रहे थे। वे इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में जाति आधारित किसी भी तरह के भेदभाव के विरुद्ध गारंटी दी गई है।
  • आरक्षण के कानून तथा सामाजिक न्याय की ऐसी ही नीतियों का कारगर क्रियान्वयन इनकी प्रमुख माँग थी।
  • भारतीय संविधान में छुआछूत की प्रथा को समाप्त कर दिया गया है। सरकार ने इसके अंतर्गत साठ और सत्तर के दशक में कानून बनाए। इसके बावजूद पुराने जमाने में जिन जातियों को अछूत माना गया था, उनके साथ इस नए दौर में भी सामाजिक भेदभाव तथा हिंसा का बर्ताव कई रूपों में जारी रहा।
  • दलितों की बस्तियाँ मुख्य गांव से अब भी दूर होती थीं। दलित महिलाओं के साथ यौन अत्याचार होते थे। जातिगत प्रतिष्ठा की छोटी-मोटी बात को लेकर दलितों पर सामूहिक जुल्म ढाये जाते थे। दलितों के सामाजिक और आर्थिक उत्पीड़न को रोक पाने में कानून की व्यवस्था नाकाफी साबित हो रही थी ।


प्रश्न 10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:

... लगभग सभी नए सामाजिक आंदोलन नयी समस्याओं जैसे-पर्यावरण का विनाश, महिलाओं की बदहाली, आदिवासी संस्कृति का नाश और मानवाधिकारों का उल्लंघन... के समाधान को रेखांकित करते हुए उभरे। इनमें से कोई भी अपनेआप में समाजव्यवस्था के मूलगामी बदलाव के सवाल से नहीं जुड़ा था। इस अर्थ में ये आंदोलन अतीत की क्रांतिकारी विचारधाराओं से एकदम अलग हैं। लेकिन, ये आंदोलन बड़ी बुरी तरह बिखरे हुए हैं और यही इनकी कमजोरी है... सामाजिक आंदोलनों का एक बड़ा दायरा ऐसी चीज़ों की चपेट में है कि वह एक ठोस तथा एकजुट जन आंदोलन का रूप नहीं ले पाता और न ही वंचितों और गरीबों के लिए प्रासंगिक हो पाता है। ये आंदोलन बिखरे-बिखरे हैं, प्रतिक्रिया के तत्त्वों से भरे हैं, अनियत हैं और बुनियादी सामाजिक बदलाव के लिए इनके पास कोई फ्रेमवर्क नहीं है। 'इस' या 'उस' के विरोध ( पश्चिम-विरोधी, पूँजीवाद विरोधी, 'विकास'-विरोधी, आदि) में चलने के कारण इनमें कोई संगति आती हो अथवा दबे-कुचले लोगों और हाशिए के समुदायों के लिए ये प्रासंगिक हो पाते हों- ऐसी बात नहीं।

- रजनी कोठारी

(क) नए सामाजिक आंदोलन और क्रांतिकारी विचारधाराओं में क्या अंतर है?

(ख) लेखक के अनुसार सामाजिक आंदोलनों की सीमाएँ क्या-क्या हैं?

(ग) यदि सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो आप उन्हें 'बिखरा' हुआ कहेंगे या मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं ज़्यादा केंद्रित हैं। अपने उत्तर की पुष्टि में तर्क दीजिए।

उत्तर

(क) सामाजिक आंदोलन समाज से जुड़े हुए मामलों अथवा समस्याओं को उठाते हैं जैसे जाति भेदभाव, रंग भेदभाव, लिंग भेदभाव के विरोध में चलाए जाने वाले सामाजिक आंदोलन। इसी प्रकार ताड़ी विरोधी आंदोलन और अन्य नशीले पदार्थ पर रोक लगाए जाने के पक्ष में आंदोलन।

(ख) सामाजिक आंदोलनों की सीमाएँ है। ये हैं कि जब यह अतीत की बात करते हैं तो प्रायः नवीन विचारधाराओं से वे दूर रहते हैं और जब वे नई समस्याएँ उठाते हैं तो परंपराओं से उन्हें या तो समझौता करना पड़ता या उन्हें रूढ़िवादियों का शिकार बनना पड़ता है। उनका एक बड़ा दायरा ऐसी बड़ी चपेट में होता है जो ठोस और एकजुटता का आंदोलन ग्रहण नहीं कर पाता।

(ग) यदि सामाजिक आंदोलन विशिष्ट मुद्दों को उठाते हैं तो हम उन्हें बिखरा हुआ कहेंगे अथवा हम यह मानेंगे कि वे अपने मुद्दे पर कहीं अधिक केंद्रित हैं।

हम अपने उत्तर की पुष्टि उनके द्वारा किए जा रहे आंदोलन की प्रवृत्ति या स्वरूप को देखकर ही तय कर पाएंगे। जैसे वे समाज में सांप्रदायिक सद्भाव के विरुद्ध आंदोलन चलाते हैं तो जो लोग धर्मनिरपेक्षता में विश्वास करते हैं या जो लोग धर्म को केवल व्यक्तिगत मामला मानते हैं, वह गुट और कट्टरपंथियों का गुट अलग-अलग हो जाएगा। समाज बिखरा हुआ लगेगा।

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