NCERT Solutions for Chapter 7 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Class 12 Political Science
एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter 7 क्षेत्रीय आकांक्षाएँ Class 12 स्वतंत्र भारत में राजनीति-II
अभ्यास
प्रश्न 1. निम्नलिखित में मेल करें:
अ (क्षेत्रीय आकांक्षाओं की प्रकृति) |
ब (राज्य) |
(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण |
(i) नगालैंड / मिजोरम |
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव |
(ii) झारखंड / छत्तीसगढ़ |
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण |
(iii) पंजाब |
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग |
(iv) तमिलनाडु |
उत्तर
अ (क्षेत्रीय आकांक्षाओं की प्रकृति) |
ब (राज्य) |
(क) सामाजिक-धार्मिक पहचान के आधार पर राज्य का निर्माण |
(iii) पंजाब |
(ख) भाषायी पहचान और केंद्र के साथ तनाव |
(iv) तमिलनाडु |
(ग) क्षेत्रीय असंतुलन के फलस्वरूप राज्य का निर्माण |
(ii) झारखंड / छत्तीसगढ़ |
(घ) आदिवासी पहचान के आधार पर अलगाववादी माँग |
(i) नगालैंड / मिजोरम |
उत्तर
- अलग देश बनाने की माँग नागालैंड तथा मिज़ोरम ने की थी। कालांतर में मिजोरम स्वायत्त राज्य बनने के लिए राजी हो गया।
- स्वायत्तता की माँग: मणिपुर- त्रिपुरा (असमी भाषा को लादने के खिलाफ।
- नए राज्य बनेः मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल, त्रिपुरा और मणिपुर को राज्य का दर्जा दिया गया। अब भी कुछ छोटे समुदायों द्वारा स्वायत्तता की माँग रखी जा रही है जैसे करबी और दिमगा, बोडो जनजाति को भी स्वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया है।
- अलगाववादी आंदोलन: मिजोरम का समाधान हो गया है। (असम सरकार द्वारा 1959 में मिजो पर्वतीय राज्य में अकाल से निपटने की असफलता के कारण ऐसी भयंकर नौबत आई थी) ।
- नागालैंड: नागालैंड में अलगाववाद की समस्या का पूर्ण समाधान अब भी नहीं हुआ है। वह वातचीत के अनेक प्रस्ताव ठुकरा चुका है। कुछ नागाओं के अल्प समूह ने भारत सरकार के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं लेकिन अंतिम रूप से अलगाववादी समस्या का समाधान होना बाकी है।
उत्तर
पंजाब समझौता: राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद अकाली दल के नरमपंथी नेताओं से बातचीत शुरू की और सिक्ख समुदाय को शांत करने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप अकाली दल के अध्यक्ष संत हरचंद सिंह लोगोंवाल और राजीव गांधी के बीच समझौता हुआ। इसे पंजाब समझौता भी कहा जाता है। इसके आधार पर अकाली दल 1985 में होने वाले चुनावों में भाग लेने को तैयार हुआ। पंजाब में स्थिति को सामान्य बनाने की ओर यह एक महत्त्वपूर्ण कदम थ।
इसकी प्रमुख बातें निम्नलिखित थीं-
- चंडीगढ़ पर पंजाब का हक माना गया और यह आश्वासन दिया गया कि यह शीघ्र ही पंजाब को दे दिया जाएगा।
- पंजाब और हरियाणा के बीच सीमा विवाद को सुलझाने के लिए एक अलग आयोग स्थापित किया जाएगा।
- रावी और व्यास के पानी का पंजाब, हरियाणा और राजस्थान के बीच बँटवारा करने के लिए एक न्यायाधिकरण (Tribunal) बैठाया जाएगा।
- सरकार ने वचन दिया कि वह भविष्य में सिक्खों के साथ बेहतर व्यवहार करेगी और उन्हें राष्ट्रीय धारा में किए गए उनके योगदान के आधार पर सम्मानजनक स्थिति में रखा जाएगा।
- सरकार दंगा पीड़ित परिवारों को उचित मुआवजा भी देगी और दोषियों को दंड दिलवाए जाने का पूरा प्रयास करेगी। 1985 के चुनावों में अकाली दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ और इसकी सरकार बनी। परन्तु कुछ समय बाद अकाली दल में दरार पैदा हुई और प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में एक गुट इससे अलग गया तथा वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू करना पड़ा।
राजीव गाँधी और लोगोवाल के समझौते के बाद भी पंजाब की स्थिति सामान्य नहीं हुई और वहाँ उग्रवादी तथा हिंसात्मक गतिविधि याँ चलती रहीं। 1991 के लोकसभा चुनावों के समय स्थिति सामान्य बनाने के लिए सरकार ने फरवरी 1992 में विधानसभा के चुनाव भी करवाए परन्तु अकाली दल समेत अन्य दलों ने इन चुनावों का बहिष्कार किया। आतंकवादियों ने भी लोगों को मतदान न करने की धमकी दी। 1992 के चुनावों में पंजाब में कुल 24 प्रतिशत मतदान हुआ था।
पंजाब में 1990 के शतक के मध्य के बाद ही स्थिति सामान्य होने लगी। सुरक्षा बलों ने उग्रवाद को दबाया और इसके कारण 1997 के चुनाव कुछ सामान्य स्थिति में हुए । माहौल कांग्रेस के विरुद्ध था और अकाली दल ने भारतीय जनता पार्टी से गठबंधन किया था। अतः अकाली दल के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार बनी। परन्तु 2002 के विधान सभा चुनाव में अकाली दल सत्ताहीन हुआ और 2007 के चुनाव में फिर से सत्ता में आया ।
इस प्रकार पंजाब में हिंसा का चक्र लगभग एक दशक तक चलता रहा। पंजाब की जनता को उग्रवादी गुटों के कारण हिंसा का शिकार होना पड़ा। नवंबर 1984 में सिख समुदाय को सिक्ख विरोधी दंगों का शिकार होना पड़ा। मानवाधिकारों का व्यापक उल्लंघन हुआ। डर और अनिश्चय की स्थिति ने वहाँ की व्यापारिक गतिविधियों पर बुरा प्रभाव डाला। 1980 के बाद एक समय ऐसा आया था जबकि पंजाब के बड़े-बड़े उद्योगपति वहाँ से पलायन करके हरियाणा आदि राज्यों में आने लगे थे। उग्रवाद ने पंजाब की आर्थिक दशा पर, विकास गतिविधियों पर, वहाँ की खुशहाली पर बुरा प्रभाव डाला था। लोंगोवाल का भी वध हुआ था। पंजाब के कांग्रेसी मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की भी सचिवालय में हत्या की गई। आजकल पंजाब में स्थित सामान्य कही जा सकती है।
उत्तर
1970 के दशक में अकालियों को कांग्रेस पार्टी से पंजाब में चिढ़ हो गई क्योंकि वह सिख और हिन्दू दोनों धर्मों के दलितों के बीच अधिक समर्थन प्राप्त करने में सफल हो गई थी। इसी दशक में अकालियों के एक समूह ने पंजाब के लिए स्वायत्तता की माँग उठाई। 1973 में, आनंदपुर साहिब में हुए एक सम्मेलन में इस आशय का प्रस्ताव पारित हुआ । आनंदपुर साहिब प्रस्ताव में क्षेत्रीय स्वायत्तता की बात उठायी गई थी। प्रस्ताव की माँगों में केन्द्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने की बात भी शामिल थी। इस प्रस्ताव में सिख 'कौम' (नेशन या समुदाय) की आकांक्षाओं पर जोर देते हुए सिखों के 'बोलबाला' (प्रभुत्व या वर्चस्व) का ऐलान किया गया। यह प्रस्ताव संघवाद को मजबूत करने की अपील करता है लेकिन इसे एक अलग सिख राष्ट्र की माँग के रूप में भी पढ़ा जा सकता है।
उत्तर
(i) जम्मू-कश्मीर की अंदरूनी विभिन्नताएँ: जम्मू एवं कश्मीर में तीन राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्र शामिल हैं- जम्मू कश्मीर और लद्दाख। कश्मीर घाटी को कश्मीर के दिल के रूप में देखा जाता है। कश्मीरी बोली बोलने वाले ज्यादातर लोग मुस्लिम हैं। बहरहाल, कश्मीरी भाषी लोगों में अल्पसंख्यक हिन्दू भी शामिल हैं। जम्मू क्षेत्र पहाड़ी तलहटी एवं मैदानी इलाके का मिश्रण है, जहाँ हिन्दू, मुस्लिम और सिख यानी कई धर्म और भाषाओं के लोग रहते हैं। लद्दाख पर्वतीय इलाका है, जहाँ चौद्ध एवं मुस्लिमों की आबादी है, लेकिन यह आबादी बहुत कम है।
(ii) मुद्दे का स्वरूपः 'कश्मीर मुद्दा' भारत और पाकिस्तान के बीच सिर्फ विवाद भर नहीं है। इस मुद्दे के कुछ बाहरी तो कुछ भीतरी पहलू हैं। इसमें कश्मीरी पहचान का सवाल जिसे कश्मीरियत के रूप में जाना जाता है, शामिल है। इसके साथ ही साथ जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक स्वायत्तता का मसला भी इसी से जुड़ा हुआ है।
(iii) अनेक आकांक्षाओं का सिर उठानाः
- धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की शेख अब्दुल्ला की आकांक्षाः 1947 से पहले जम्मू एवं कश्मीर में राजशाही थी। इसके हिन्दू शासक हरि सिंह भारत में शामिल होना नहीं चाहते थे और उन्होंने अपने स्वतंत्र राज्य के लिए भारत और पाकिस्तान के साथ समझौता करने की कोशिश की। पाकिस्तानी नेता सोचते थे कि कश्मीर, पाकिस्तान से संबद्ध है, क्योंकि राज्य की ज्यादातर आबादी मुस्लिम है। बहरहाल यहाँ के लोग स्थिति को अलग नजरिए से देखते थे। वे अपने को कश्मीरी सबसे पहले, कुछ और बाद में मानते थे। राज्य मे नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में जन-आंदोलन चला अब्दुल्ला चाहते थे कि महाराजा पद छोड़ें, लेकिन वे पाकिस्तान में शामिल होने के खिलाफ थे। नेशनल कांफ्रेंस एक धर्मनिरपेक्ष संगठन था और इसका कांग्रेस के साथ काफी समय तक गठबंधन रहा ।
- जम्मू-कश्मीर के आक्रमणकारियों से प्रतिरक्षा कराने की आकांक्षा, चुनाव और लोकतंत्र स्थापना की आकांक्षा: अक्टूबर 1947 में पाकिस्तान ने कबायली घुसपैठियों को अपनी तरफ से कश्मीर पर कब्जा करने भेजा। ऐसे में महाराजा भारतीय सेना से मदद माँगने को मजबूर हुए। भारत ने सैन्य मदद उपलब्ध कराई और कश्मीर घाटी से घुसपैठियों को खदेड़ा। इससे पहले भारत सरकार ने महाराजा से भारत संघ में विलय के दस्तावेज पर हस्ताक्षर करा लिए। इस पर सहमति जताई गई कि स्थिति सामान्य होने पर जम्मू-कश्मीर की नियति का फैसला जनमत सर्वेक्षण के द्वारा होगा। मार्च 1948 में शेख अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर राज्य के प्रधानमंत्री बने (राज्य में सरकार के मुखिया को तब प्रधानमंत्री कहा जाता था।) भारत, जम्मू एवं कश्मीर की स्वायत्तता को बनाए रखने पर सहमत हो गया। इसे संविधान में धारा 370 का प्रावधान करके संवैधानिक दर्जा दिया गया।
उत्तर
कश्मीर की क्षेत्रीय स्वायत्तता के मसले पर विभिन्न पक्षः जम्मू-कश्मीर राज्य की अधिक स्वायत्तता की माँग के भी दो पहलू हैं। पहला यह कि समस्त राज्य को केन्द्र के अत्यधिक नियंत्रण से मुक्ति मिले और उसे अपने आंतरिक मामलों में अधिक-से-अधि क आजादी मिले और वह अपने निर्णय बिना केंद्रीय हस्तक्षेप के कर सके तथा उन्हें लागू कर सके। धारा 370 को पूरी तरह लागू किया जाए।
स्वायत्तता के संबंध में एक दृष्टिकोण और भी है और वह जम्मू-कश्मीर की आंतरिक स्वायत्तता से संबंधित है। जम्मू-कश्मीर के अंदर भी विभिन्न आधारों पर क्षेत्रीय विभिन्नताएँ हैं और इसके तीन क्षेत्र अपनी अलग-अलग पहचान रखते हैं। कश्मीर घाटी, जम्मू तथा लद्दाख के क्षेत्र के लोगों का आरोप है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने सदा ही उनके हितों की अनदेखी की है और ध्यान कश्मीर घाटी के विकास की ओर लगाया है तथा इन दोनों क्षेत्रों का कुछ भी विकास नहीं हुआ है। अतः इन क्षेत्रों को भी जम्मू-कश्मीर की सरकार के नियंत्रण से मुक्ति मिलनी चाहिए और इन्हें आंतरिक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए। इसी माँग के संदर्भ में लद्दाख स्वायत परिषद की स्थापना की गई थी। आजादी के बाद से ही जम्मू एवं कश्मीर की राजनीति हमेशा विवादग्रस्त एवं संघर्षयुक्त रही। इसके बाहरी एवं आंतरिक दोनों कारण हैं। कश्मीर समस्या का एक कारण पाकिस्तान का रवैया है। उसने हमेशा यह दावा किया है कि कश्मीर घाटी पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। जैसा कि आप पढ़ चुके हैं कि 1947 में इस राज्य में पाकिस्तान ने कबायली हमला करवाया। इसके परिणामस्वरूप राज्य का एक हिस्सा पाकिस्तानी नियंत्रण में आ गया। भारत ने दावा किया कि यह क्षेत्र का अवैध अधिग्रहण है। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को 'आजाद कश्मीर' कहा। 1947 के बाद कश्मीर भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष एक बड़ा मुद्दा रहा है। आंतरिक रूप से देखें तो भारतीय संघ में कश्मीर की हैसियत को लेकर विवाद रहा है। आप जानते हैं कि कश्मीर को संविधान में धारा 370 के तहत विशेष दर्जा दिया गया है। धारा 370 एवं 371 के तहत् किए गए विशेष प्रावधानों के बारे में आपने पहले ही पढ़ा होगा। धारा 370 के तहत जम्मू एवं कश्मीर को भारत के अन्य राज्यों के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता दी गई है। राज्य का अपना संविधान है। भारतीय संविधान की सारी व्यवस्थाएँ इस राज्य में लागू नहीं होतीं। संसद द्वारा पारित कानून राज्य में उसकी सहमति के बाद ही लागू हो सकते हैं।
इस विशेष स्थिति से दो विरोधी प्रतिक्रियाएँ सामने आई। लोगों का एक समूह मानता है कि इस राज्य को धारा 370 के तहत प्राप्त विशेष दर्जा देने से यह भारत के साथ पूरी तरह नहीं जुड़ पाया है। यह समूह मानता है कि धारा 370 को समाप्त कर देना चाहिए और जम्मू-कश्मीर को अन्य राज्यों की तरह ही होना चाहिए। दूसरा वर्ग (इसमें ज्यादातर कश्मीरी हैं) विश्वास करता है कि इतनी भर स्वायत्तता पर्याप्त नहीं है। कश्मीरियों के एक वर्ग ने तीन प्रमुख शिकायतें उठायी हैं। पहला यह कि भारत सरकार ने वायदा किया था कि कबायली घुसपैठियों से निपटने के बाद जब स्थिति सामान्य हो जाएगी तो भारत संघ में विलय के मुद्दे पर जनमत-संग्रह कराया जाएगा। इसे पूरा नहीं किया गया। दूसरा, धरा 370 के तहत दिया गया विशेष दर्जा पूरी तरह से अमल में नहीं लाया गया। इससे स्वायत्तता की बहाली अथवा राज्य को ज्यादा स्वायत्तता देने की माँग उठी।
उत्तर
असम आंदोलन: उत्तर-पूर्व के क्षेत्रों, विशेषकर असम राज्य में बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन हुआ है। बाहरी लोगों से अभिप्राय केवल विदेशी नहीं बल्कि वे सभी लोग माने जाते हैं जो या तो किसी दूसरे देश से आए या भारत के ही किसी अन्य क्षेत्र अथवा दूसरे राज्य से आए हैं। ऐसे दोनों प्रकार के लोगों को यहाँ की जनता बाहरी लोग कह कर पुकारती है। असम राज्य में बाहरी लोगों के विरुद्ध आंदोलन चला तथा उसने हिंसात्मक रूप भी धारण किया। असम के अतिरिक्त और भी कई राज्यों में बाहरी लोगों को अच्छी नजर से नहीं देखा जाता रहा है। इसका एक उदाहरण: महाराष्ट्र है जहाँ का क्षेत्रीय दल शिव सेना खुले तौर पर कहता है कि "मुंबई केवल मुंबई वालों के लिए"। सन् 2007 में भी महाराष्ट्र के कई क्षेत्रों में बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों में आए लोगों के साथ मारपीट की गई और एक बार तो रेलवे की भर्ती से संबंधित होने वाली परीक्षा में बाहर से आए उम्मीदवारों को परीक्षा में बैठने ही नहीं दिया गया। एक बार दिल्ली की मुख्यमंत्री ने भी कहा था कि दिल्ली की बुरी अवस्था, पानी, बिजली, बस सेवा कानून-व्यवस्था आदि के लिए बाहरी लोग उत्तरदायी हैं और जो बाहर से आते हैं यहीं बस जाते हैं।
बाहरी लोगों के विरोध पर आधारित असम का छात्र आंदोलन ऐसे ही आंदोलनों में प्रमुख कहा जा सकता है। यह आंदोलन लगभग 6 वर्ष तक चला और अंत में असम समझौते के आधार पर समाप्त हुआ। यह आंदोलन 1978 में आरंभ हुआ था और 1985 में समाप्त हुआ।
असम में देश के दूसरे क्षेत्रों से आए लोगों के खिलाफ वहाँ के लोगों का गुस्सा इतना अधिक नहीं था जितना कि बांग्लादेश से अवैध रूप से भारत आए विदेशियों के कारण था। इन बांग्लादेशियों ने यहाँ आकर स्थायी रूप से रहना आरंभ कर दिया था और अपने आपको मतदाता के रूप में भी रजिस्टर करवा लिया था । स्थानीय तथा क्षेत्रीय सुविधाओं पर दबाव पड़ने के साथ-साथ यहाँ 'के लोगों को यह खतरा महसूस होने लगा था कि वे इनकी बढ़ती हुई संख्या के कारण अल्पमत में आ जाएंगे। असम में तेल के भंडार थे, कोयले की खानें थीं और चाय के बागान थे फिर भी लोगों की आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी और गरीबी का वातावरण था। सरकार इन विदेशियों के विरुद्ध कार्यवाही नहीं करती थी क्योंकि ये बाहरी लोग कांग्रेस के वोट बैंक की भूमिका निभाते थे। लोगों को विश्वास हो गया था कि राज्य के प्राकृतिक संसाधनों का लाभ असम के लोगों को नहीं मिलता बल्कि बाहरी लोगों को होता है। उनमें धरती पुत्र की भावना जागृत और विकसित हुई। अर्थात् असम केवल असम के मौलिकवासियों के लिए है, बाहरी लोगों के लिए नहीं और बाहरी लोगों को असम से बाहर निकाला जाए।
1979 में वहाँ युवा छात्रों ने अपना एक संगठन ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) - (All Assam Students Union) बनाया और बाहरी लोगों का विरोध शुरू किया। शीघ्र ही इस संगठन को वहाँ की जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त हुआ। इस आंदोलन की मुख्य माँगें थी-
- बांग्लादेश से अवैध रूप से आए लोगों को वापस बांग्लादेश भेजा जाए।
- यह भी माँग थी कि 1951 के बाद जितने भी लोग विदेश या देश के अन्य हिस्सों से असम आए हैं उन्हें वापस भेजा जाए।
- असम में गैर कानूनी तौर पर दर्ज किए गए मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटाए जाएँ।
- असम राज्य में गैर- असमी लोगों के दबदबे को समाप्त किया जाए और राज्य प्रशासन में असम के लोगों की भागीदारी होनी चाहिए।
शीघ्र ही यह आंदोलन सारे राज्य में फैल गया। वैसे तो यह आंदोलन शांतिपूर्ण ढंग से चलाया गया था परंतु इसमें हिंसक घटनाएँ भी हुई। आंदोलनकारियों ने असम के खनिज पदार्थों को राज्य से बाहर ले जाने में भी रुकावटें पैदा कीं। जानमाल का भी नुकसान हुआ। रेल यातायात में भी रुकावट डालने की कोशिशें की गई। आसू द्वारा चलाए गए आंदोलन को सभी दलों का समर्थन प्राप्त... था क्योंकि इस ने किसी एक दल के साथ अपने को नहीं जोड़ा था और आंदोलन पूरी तरह छात्रों के हाथों में था। राज्य सरकार तथा केंद्र सरकार ने आंदोलनकारियों के साथ कई बार बातचीत की परंतु कोई हल नहीं निकला। 1983 में केंद्र ने असम में विधानसभा चुनाव करवाने का निर्णय किया। छात्रों ने इसका विरोध किया परंतु सरकार ने सेना की मौजूदगी में जबरदस्ती चुनाव करवाए। परंतु उसमें बहुत ही कम संख्या में मत डले । कांग्रेस की सरकार तो बनी परंतु वह जनसमर्थन पर आधारित नहीं कही जा सकती थी। चुनावों के दौरान हिंसात्मक घटनाएँ घटीं और चुनावों के बाद स्थिति और अधिक विस्फोटक हुई तथा राज्य सरकार के लिए काम करना कठिन हो गया।
1985 में राजीव गांधी ने आंदोलनकारियों के साथ समझौता किया, जिसे असम समझौता कहा जाता है। इसमें कहा गया था कि:
- जो लोग बांग्लादेश से बांग्लादेश- युद्ध, 1971 के दौरान और उसके बाद असम आए हैं उनकी पहचान की जाएगी और उन्हें वापस भेजा जाएगा,
- असम में विधान सभा के नए चुनाव करवाए जाएंगें और सभी दल उसमें भागीदारी करेंगे, कोई उसका विरोध नहीं करेगा।
असम समझौते ने वहाँ की स्थिति को सामान्य बनाया। छात्र संगठन तथा कई दूसरे आंदोलनकारियों समूहों ने मिलकर एक क्षेत्रीय राजनीतिक दल की स्थापना की जिसका नाम था असम गण परिषद । इस चुनाव में असम गण परिषद को भारी सफलता प्राप्त हुई और इसकी सरकार बनी। असम गण परिषद् के प्रधान थे एक छात्र नेता प्रफुल्ल कुमार मोहंती । वे मुख्यमंत्री बने। भारतीय राजनीति में यह पहला अवसर था जब कोई छात्र नेता विश्वविद्यालय से सीधा मुख्यमंत्री के पद पर पहुँचा।
परंतु बाहरी लोगों के विरोध का मुद्दा पूरी तरह हल नहीं हुआ। यह असम में भी बना हुआ है और उत्तर-पूर्व के अन्य राज्यों में हुआ है और अरुणाचल प्रदेश में चकमा शरणार्थी बसे हुए हैं जो वहाँ के मूल निवासियों के लिए खतरा समझे जाते हैं। त्रिपुरा में बाहरी लोगों के कारण वहाँ के मूल निवासी अल्पसंख्यक बने हुए हैं।
उत्तर
प्रत्येक क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी माँग की ओर अग्रसर नहीं होता: किसी भी समाज में क्षेत्रीय आकांक्षाओं का उभरना स्वाभाविक होता है और क्षेत्र के लोग उनकी पूर्ति की माँग करने लगते हैं। केन्द्रीय सरकार राष्ट्र के सभी क्षेत्रों का एक जैसा विकास नहीं कर सकती और सबको समान सुविधाएँ उपलब्ध नहीं करवा सकती और सब क्षेत्रों की समस्याएँ भी समान नहीं होतीं। इसलिए लोकतांत्रिक राष्ट्र में तो विशेष रूप से क्षेत्रीय माँगें उठती रहती हैं और क्षेत्रीय आंदोलन होते हैं। संघात्मक व्यवस्था में ये अधि क होते हैं। परंतु एकात्मक राज्य में भी तथा तानाशाही राज्य में भी इनका उभरना चलता रहता है।
परंतु सभी क्षेत्रीय आंदोलन आगे चलकर अलगाववादी प्रकृति अपना लेते हैं, ऐसी बात नहीं। यदि क्षेत्रीय आंदोलनों की ओर आरंभ ध्यान दे दिया जाए, बात-चीत के द्वारा क्षेत्रीय आकांक्षाओं तथा माँगों की पूर्ति के प्रयास किए जाएँ तो क्षेत्रीय आंदोलन अधि कतर जल्दी ही समाप्त हो जाते हैं और स्थिति सामान्य होने लगती है। जब केन्द्रीय सरकार या सरकार क्षेत्रीय आंदोलन को बलपूर्वक दबाने का प्रयास करती है, आंदोलनकारियों की बात ही सुनने को तैयार नहीं होती तो वह आंदोलन दबने की बजाए ज्यादा तेज़ हो जाता है, हिंसात्मक हो जाता है, आंदोलनकारियों को अपने अस्तित्व का ही खतरा पैदा होने लगता है तो वह अलगाववादी बनने लगता है। क्षेत्रीय आंदोलन को कुचलने का प्रयास उसे अपनी माँगों की वृद्धि करने पर मजबूर करता है और क्षेत्र के लोगों का समर्थन अधिक मात्रा में प्राप्त होने लगता है तथा क्षेत्र के लोग अपने को राष्ट्र की मुख्य धारा से अलग करके अपना अलग राष्ट्र, अलग राज्य बनाने के प्रयास आरंभ कर देते हैं।
भारत में स्वतंत्रता के बाद उपजे विभिन्न क्षेत्रीय आंदोलन इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। उत्तर-पूर्व के राज्यों में उभरे सभी क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी प्रकृति के नहीं हुए । असम का क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी नहीं हुआ। आज पंजाब में नहीं है। जम्मू-कश्मीर में सभी समूह अलगाववादी नहीं है। वहाँ कई समूहों को पाकिस्तान द्वारा अलगाववादी नीति अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। दक्षिण भारत का क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी नहीं हुआ। अधिकतर क्षेत्रीय आंदोलन क्षेत्रीय स्वायत्तता, नदी जल बँटवारे, किसी क्षेत्र को किसी दूसरे राज्य के साथ मिलाने, क्षेत्रीय विकास की माँग, क्षेत्रीय भाषा तथा संस्कृति के प्रश्न आदि के आधार पर खड़े होते हैं और सभी क्षेत्रीय आंदोलन अलगाववादी नहीं होते। क्षेत्रीय आंदोलन आपसी बातचीत तथा शीघ्रता से किया गया हल उसे हिंसात्मक तथा उग्रवादी नहीं होने देता।
उत्तर
क्षेत्रीय माँगों से 'विविधता में एकता' की अभिव्यक्ति (Manifestation of Unity in Diversity by Regional Demands : भारत एक बहुलवादी समाज है और कई प्रकार की विविधताओं वाला राष्ट्र है। ये विविधताएँ भाषा, धर्म क्षेत्र आदि के हुई हैं। इनके कारण क्षेत्रीय आकांक्षाएँ उभरती रहती हैं, बढ़ती रहती हैं। सभी क्षेत्रों की माँगें एक समान नहीं होतीं, कई बार वे एक-दूसरे की विरोधी भी होती हैं जैसे कि किसी नदी के जल के बँटवारे से संबंधित विवाद, किसी बड़े उद्योग को किस राज्य या क्षेत्र में लगाया जाए इस के संबंध में विवाद आदि। कभी अलगाववादी क्षेत्रीय माँग भी उभर आती है।
परंतु इन विविधताओं के होते हुए भी राष्ट्रीय एकता बनी हुई है। अंतर्राष्ट्रीय जगत में भारत की अलग पहचान है। भारत की एक अलग संस्कृति है जिसमें अहिंसा, विश्वशांति, विश्वबंधुत्व आदि प्रमुख विशेषताएँ हैं। भारत के अंदर बेशक कोई कहे कि वह पंजाबी है या बंगाली है, मराठी है या गुजराती है, भाषा के आधार पर राज्यों के निर्माण के लिए आंदोलन किए हैं, नदी जल बँटवारे को लेकर दो या तीन राज्यों के बीच संघर्ष हुए हैं, परंतु अब जब दो भारतीय अमेरिका या कनाड़ा, इंग्लैंड या पेरिस में एक-दूसरे के संपर्क में आते हैं तो उनमें यह भावना सबसे पहले प्रकट होती है कि हम भारतीय हैं। विदेशों में सभी भारतीय एकजुट होकर भारतीय राष्ट्र का अंग होने और राष्ट्रीय सम्मान तथा हितों की रक्षा के लिए एकता का उदाहरण रखते हैं। भारत-पाक युद्धों के दौरान भारत के सभी दलों, सभी वर्गों, सभी क्षेत्रों के लोगों के लोगों ने राष्ट्रीय एकता का परिचय दिया और उसकी रक्षा के लिए सरकार को पूरा समर्थन दिया । जब 1962 में चीन ने नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) पर आक्रमण किया था तो गुजराती भी यह समझता था कि यह आक्रमण उस पर हुआ है, मद्रासी भी यही समझता था, उत्तर प्रदेश में रहने वाला नागरिक भी यही समझता था। अतः क्षेत्रीय माँगों से भारतीय राष्ट्र के विभाजन का अनुमान नहीं होता बल्कि विविधता में एकता का ज्ञान होता है।
“हजारिका का एक गीत... एकता की विजय पर है; पूर्वोत्तर के सात राज्यों को इस गीत में एक ही माँ की सात बेटियाँ कहा गया है... मेघालय अपने रास्ते गई... अरुणाचल भी अलग हुई और मिजोरम असम के द्वार पर दूल्हे की तरह दूसरी बेटी से ब्याह रचाने को खड़ा है... इस गीत का अंत असमी लोगों की एकता को बनाए रखने के संकल्प के साथ होता है और इसमें समकालीन असम में मौजूद छोटी-छोटी कौमों को भी अपने साथ एकजुट रखने की बात कही गई है… करवी और मिजिंग भाई-बहन हमारे ही प्रियजन हैं।"
-संजीब बरुआ
(क) लेखक यहाँ किस एकता की बात कह रहा है?
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य क्यों बनाए गए?
(ग) क्या आपको लगता है कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है? क्यों?
उत्तर
(क) लेखक यहाँ देश की एकता, क्षेत्रीय, सांस्कृतिक विभिन्नता में एकता, पारस्परिक भाईचारा और पूर्वोत्तर के सात राज्यों के एक ही परिवार की सात पुत्रियों की एकता के माध्यम से एकता की विजय की बात करता है।
(ख) पुराने राज्य असम से अलग करके पूर्वोत्तर के अन्य राज्य निम्नलिखित कारणों से बनाए गए:
- आजादी के बाद असम ने माँ या बड़े भाई की भूमिका का निर्वाह नहीं किया। उसने गैर असमी लोगों पर असमी भाषा थोंप दी। इससे पूर्व के अन्य राज्यों में खिलाफत हुई, प्रदर्शन हुए, दंगे भड़के । जनजाति समुदाय के नेता असम से अलग होना चाहते थे। आखिरकार असम को बाँट कर मेघालय, मिजोरम और अरुणाचल प्रदेश बनाए गए। त्रिपुरा और मणिपुर को भी राज्य का दर्जा दिया गया।
- बोडो, करबी और दिमसा जैसे समुदायों ने अपने-अपने लिए अलग राज्य की माँग की, जन आंदोलन चलाए। इतने छोटे राज्य बनाए जाना संभव नहीं था। इस कारण करबी और दिमसा को जिला परिषद् के अंतर्गत स्वायत्तता दी गई जबकि बोडो जनजाति को हाल ही में स्वायत्त परिषद् का दर्जा दिया गया।
(ग) मैं समझता हूँ कि भारत के सभी क्षेत्रों के ऊपर एकता की यही बात लागू हो सकती है जिसकी ओर कवि हजारिका का गीत अथवा संजीब बरुआ का उद्धरण (कथन) हमारा ध्यान खींचता है।
- पहला तर्क यह है कि हमारा देश विभिन्नताओं वाला देश है। इन्हें बनाए रखना ही हमारे देश की सुंदरता, एकता, अखंडता और पहचान का आधार है।
- क्षेत्रीय आकांक्षाएँ किसी देश की एकता के लिए खतरा नहीं हैं। उन्हें लेकर राजनीतिक दल या स्थानीय नेता या हित समूह या दबाव समूह कोई चर्चा करें तो घबराने की बात नहीं है। हमारा संविधान ऐसे लोगों द्वारा बनाया गया है जो अनुभवी, दूरदर्शी, राष्ट्रभक्त और महान् विद्वान थे। उन्होंने क्षेत्रीय विभिन्नताओं और आकांक्षाओं के लिए देश के संविधान में पर्याप्त प्रबंध और व्यवस्था की है।