NCERT Solutions for Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Class 12 Political Science
एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter 6 लोकतांत्रिक व्यवस्था का संकट Class 12 स्वतंत्र भारत में राजनीति-II
अभ्यास
प्रश्न 1. बताएँ कि आपातकाल के बारे में निम्नलिखित कथन सही हैं या गलत-
(क) आपातकाल की घोषणा 1975 में इंदिरा गाँधी ने की।
(ख) आपातकाल में सभी मौलिक अधिकार निष्क्रिय हो गए।
(ग) बिगड़ती हुई आर्थिक स्थिति के मद्देनजर आपातकाल की घोषणा की गई थी।
(घ) आपातकाल के दौरान विपक्ष के अनेक नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
(ङ) सी.पी.आई. ने आपातकाल की घोषणा का समर्थन किया।
उत्तर
(क) गलत,
(ख) सही,
(ग) गलत,
(घ) सही,
(ङ) सही
(क) 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान
(ख) 1974 की रेल-हड़ताल
(ग) नक्सलवादी आंदोलन
(घ) इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फ़ैसला
(ङ) शाह आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष
उत्तर
(ग) नक्सलवादी आंदोलन
(क) संपूर्ण क्रांति |
(i) इंदिरा गाँधी |
(ख) गरीबी हटाओ |
(ii) जयप्रकाश नारायण |
(ग) छात्र आंदोलन |
(iii) बिहार आंदोलन |
(घ) रेल हड़ताल |
(iv) जॉर्ज फर्नांडिस |
उत्तर
(क) संपूर्ण क्रांति |
(ii) जयप्रकाश नारायण |
(ख) गरीबी हटाओ |
(i) इंदिरा गाँधी |
(ग) छात्र आंदोलन |
(iii) बिहार आंदोलन |
(घ) रेल हड़ताल |
(iv) जॉर्ज फर्नांडिस |
उत्तर
1980 में मध्यावधि चुनाव करवाने के पीछे जो कारण था वह यह कि जनता पार्टी जो मूलत: इंदिरा गाँधी के मनमाने शासन के विरुद्ध विभिन्न पार्टियों का गठबंधन था, शीघ्र ही बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया। कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी। लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया। इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही। इस प्रकार 1980 में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव करवाने पड़े।
उत्तर
जनता पार्टी की सरकार द्वारा शाह आयोग की नियुक्ति: 1977 के चुनावों में जनता पार्टी को बहुमत प्राप्त हुआ था और उसकी सरकार बनी थी। इस सरकार ने आपातकाल में की गई ज्यादतियों, कानूनों के उल्लंघनों तथा शक्तियों के दुरुप्रयोग की जाँच कर अपनी रिपोर्ट देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के एक सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश श्री न्यायमूर्ति जे. सी. शाह की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने कई प्रकार के आरोपों की जाँच के लिए बहुत से कागज-पत्रों, साक्ष्यों की जाँच की तथा हजारों गवाहों के कथन दर्ज किए। श्रीमती इंदिरा गाँधी को गवाही में बुलाया गया। इंदिरा गाँधी आयोग के सामने उपस्थित तो हुईं परन्तु उन्होंने आयोग के किसी प्रश्न का उत्तर देने और अपनी सफाई देने से इंकार कर दिया।
शाह आयोग के निष्कर्ष: शाह आयोग ने अपनी रिपोर्ट तीन भागों में दी। दो आंतरिक रिपोर्ट थी और तीसरी अंतिम रिपोर्ट थी । इन रिपोर्टों में कहा गया था कि आपातकाल के दौरान सरकारी मशीनरी का खुलकर दुरुपयोग किया गया था, अधिकतर आदेश मौखिक रूप में दिए जाते थे, नागरिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ था तथा नौकरशाही ने अपनी शक्तियों का नियमों के विरुद्ध प्रयोग तथा दुरुपयोग किया था और पुलिस संगठन ने आम आदमी पर जुल्म ढाए थे। यह भी कहा गया था कि नौकरशाही तथा पुलिस संगठन ने अपने स्वतंत्र रूप में नियमों के अनुसार कार्य करने की शैली को त्याग दिया था।
उत्तर
25 जून, 1975 में सरकार द्वारा 'आंतरिक गड़बड़ी' के आधार पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करने के उसके पास कई कारण थे।
इनमें से कुछ मुख्य कारण निम्नलिखित हैं-
(i) जनवरी 1974 में गुजरात में छात्र आंदोलन हुआ जिसका सारे देश में प्रभाव हुआ और राष्ट्रीय राजनीति भी प्रभावित हुई। जीवन की आवश्यक वस्तुएँ जैसे कि अनाज, खाद्य तेल आदि की कीमतें बहुत बढ़ी हुई थीं, जिनके कारण आम आदमी को बड़े संकट का सामना करना पड़ रहा था। इन बढ़ी हुई कीमतों तथा प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार के विरुद्ध गुजरात में छात्रों ने राज्य व्यापी आंदोलन छेड़ दिया और इनकी अगुवाई सभी विपक्षी दल कर रहे थे। जब आंदोलन ने विकराल रूप धारण किया तो केन्द्रीय सरकार ने वहाँ राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया। केन्द्रीय सरकार वहाँ शीघ्र ही नए चुनाव नहीं करवाना चाहती थी। परन्तु विपक्षी दल की माँग तथा विशेष रूप से कांग्रेस संगठन के नेता मोरारजी देसाई की इस घोषणा के बाद कि यदि राज्य में नए चुनाव नहीं करवाए गए तो वे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर जा बैठेंगे। मोरारजी देसाई अपने सिद्धांतों और वचनों का निष्ठा से पालन करने वाले नेता के रूप में छवि बनाए हुए थे। केन्द्र को विवश होकर जून 1975 को वहाँ विधानसभा के चुनाव करवाने पड़े जिसमें कांग्रेस को मुँह की खानी पड़ी। केन्द्र की सरकार की छवि धूमिल हुई।
(ii) बिहार में चले छात्र आंदोलन ने राष्ट्रव्यापी आंदोलन का रूप लिया। यह आंदोलन मार्च 1974 में छात्रों द्वारा बढ़ती कीमतों, खाद्यान्नों की उपलब्धि के अभाव, बढ़ती बेरोजगारी, शासन में फैले भ्रष्टाचार, आम आदमी के दुखों की और राज्य सरकार की अनदेखी आदि के आधार पर चलाया गया। छात्रों ने कुछ दिनों बाद समाजवादी पार्टी के संस्थापक महासचिव जय प्रकाश नारायण से प्रार्थना की कि वे उनका नेतृत्व करें। इस समय जय प्रकाश नारायण ने सक्रिय राजनीति को छोड़ा हुआ था और सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में ही सक्रिय थे। उन्होंने छात्रों का निमंत्रण स्वीकार करते हुए दो शर्तें रखीं। एक तो यह कि आंदोलन अहिंसात्मक होगा और दूसरे, यह बिहार राज्य तक सीमित न रहकर राष्ट्रव्यापी होगा।
बिहार के छात्र आंदोलन ने राजनीतिक आंदोलन का रूप ले लिया। बिहार सरकार की बर्खास्तगी की माँग की गई। जय प्रकाश नारायण ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी पक्षों में परिवर्तन करने के लिए एक "संपूर्ण क्रांति" की अपील की। बिहार सरकार के विरुद्ध प्रतिदिन आंदोलन, हड़ताल, बंद आदि होने लगे और धीरे-धीरे यह सारे भारत में फैल गया। यह कहा गया कि मौजूदा लोकतंत्र वास्तविक नहीं है। पूर्ण क्रांति के द्वारा वास्तविक लोकतंत्र की स्थापना की माँग की गई।
(iii) मई 1974 की रेल: हड़ताल ने सारे राष्ट्र में सरकार के विरुद्ध असंतोष को बढ़ावा दिया। स्थानीय बसों की हड़ताल से ही नगर का जनजीवन ठप्प हो जाता है। रेल हड़ताल से सारे राष्ट्र का जनजीवन ठप्प हो गया। यह हड़ताल जार्ज फर्नाडिस की अगुआई में रेलवे कर्मचारियों ने बोनस तथा सेवा से जुड़ी अन्य माँगों के आधार पर की थी। रेलवे भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र का उद्यम है और सारे राष्ट्र को प्रभावित करता है। गरीब व्यक्ति के लिए आने-जाने का सस्ता तथा सुगम साधन भी है। सरकार ने हड़ताल को असंवैधानिक घोषित किया और उनकी माँगें स्वीकार नहीं कीं। 20 दिनों के बाद यह हड़ताल बिना किसी समझौते के वापस ले ली गई। परन्तु इसने मजदूरों, रेलवे कर्मचारियों, आम आदमी तथा व्यापारियों तक में सरकार के विरुद्ध असंतोष को विकसित किया।
(iv) सरकार और न्यायपालिका के बीच संघर्ष: संविधान के लागू होने के बाद से ही न्यायपालिका तथा सरकार या संसद के बीच संघर्ष आरंभ गया था जबकि न्यायपालिका ने कई भूमि सुधार कानूनों को मौलिक अधिकारों के विरुद्ध बताकर असंवैधानिक घोषित किया था। सरकार ने इससे बचने के लिए 9वीं सूची की व्यवस्था की थी। इंदिरा गाँधी के कार्यकाल में यह प्रतिस्पर्धा अधिक तीखी हो गई। पहले से ही यह प्रश्न आ रहा था कि संसद सर्वोच्च है और उसे संविधान के हर भाग में, मौलिक अधिकारों में भी संशोधन का अधिकार है। परंतु सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि संसद मौलिक अधि कारों में कटौती तथा संशोधन नहीं कर सकती। संसद तथा सरकार का कहना था कि संसद जनता का प्रतिनिधित्व करती है इसलिए उसे सर्वोच्च अधिकार प्राप्त है। 1967 के प्रसिद्ध केशवानंद भारती नामक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय किया था कि संसद संविधान के हर भाग में संशोधन कर सकती है परंतु संविधान के आधारभूत ढाँचे को विकृत नहीं कर सकती। यह निर्णय आज भी लागू है।
इंदिरा गाँधी ने प्रयास किया कि न्यायालय सरकार की समाजवादी नीतियों के पक्ष में निर्णय दे, सरकार के दबाव में काम करें। 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का पद खाली हुआ। इंदिरा गाँधी ने सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किए जाने की प्रथा का पालन न करते हुए तीन वरिष्ठतम जजों को छोड़कर ए. एन. रे को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया। इस निर्णय की सारे देश में कानूनी या न्यायिक क्षेत्रों में, विपक्षी दलों के द्वारा व्यापक निंदा हुई और इसे न्यायापालिका की स्वतंत्रता पर चोट माना गया। इन तीनों जजों ने सरकार के विरुद्ध निर्णय दिए थे। स्पष्ट दिखाई दिया कि इंदिरा गांधी सोवियत प्रणाली की तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका चाहती थी। प्रतिबद्ध नौकरशाही की आवश्यकता पर पहले ही सरकार अथवा कांग्रेस प्रचार कर रही कि सरकारी कर्मचारियों का दायित्व सरकार के प्रति वचनबद्धता होनी चाहिए और सरकार की इच्छानुसार ही काम करना चाहिए। तीनों जजों ने त्यागपत्र दे दिए।
(v) संपूर्ण क्रांति के लिए संसद मार्च का आह्वान: जय प्रकाश नारायण का संपूर्ण क्रांति का नारा सारे भारत में फैला, वह बिहार तक सीमित नहीं रहा। 1975 में जय प्रकाश नारायण ने संपूर्ण क्रांति को व्यावहारिक बनाने के लिए संसद मार्च का आह्वान किया और इस संसद मार्च का नेतृत्व किया। इसका देशव्यापी प्रभाव पड़ा और सभी राज्यों से सभी विपक्षी दलों के अधिक से अधिक लोग संसद मार्च में सम्मिलित हुए। अब तक इतनी बड़ी रैली राजधानी में कभी नहीं हुई थी। इसने सरकार को विचलित किया और इंदिरा गाँधी की लोकप्रियता धरातल की ओर जाने लगी।
(vi) इंदिरा गाँधी के विरुद्ध चुनाव याचिका का निर्णय समाजवादी नेता राजनारायण ने 1971 का चुनाव इंदिरा गाँधी के मुकाबले में लड़ा था। हारने के बाद उसने इंदिरा गाँधी के विरुद्ध चुनाव याचिका दायर की थी और उसका आध और यह बनाया था कि उन्होंने चुनाव प्रचार में सरकारी मशीनरी प्रयोग की है और अपनी शक्ति का दुरुप्रयोग किया है। सरकारी कर्मचारियों का चुनाव में प्रयोग करना अवैध है। 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्चन्यायालय के न्यायाधीश जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने अपना निर्णय दिया। याचिका को स्वीकार करते हुए उन्होंने इंदिरा गाँधी के निर्वाचन को रद्द कर दिया। इसका अर्थ था कि इंदिरा गाँधी लोकसभा की सदस्य नहीं रही थीं। इससे सारे देश में एक सन्नाटा सा छा गया। अपील पर सर्वोच्च न्यायालय ने 24 जून, 1975 को उच्च न्यायालय के फैसले पर आंशिक रूप से रोक लगाई और कहा कि इंदिरा गाँधी अपील के फैसले तक सांसद तो बनी रहेंगी परंतु लोक सभा की कार्यवाही में भाग नहीं ले सकेंगी।
उत्तर
केन्द्र में पहली बार एक विपक्षी सरकार या जनता पार्टी की सरकार बनने के लिए उत्तरदायी निम्न कारण या परिस्थितियाँ थीं-
- (i) आपातकाल लागू होने के पहले ही बड़ी विपक्षी पार्टियाँ एक-दूसरे के नजदीक आ रही थीं। चुनाव के ऐन पहले इन पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी नाम से एक नया दल बनया। नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व स्वीकार किया। कांग्रेस के कुछ नेता भी जो आपातकाल के खिलाफ़ थे, इस पार्टी में शामिल हुए।
- (ii) कांग्रेस के कुछ अन्य नेताओं ने जगजीवन राम के नेतृत्व में एक नयी पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम 'कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी' था और बाद में यह पार्टी भी जनता पार्टी में शामिल हो गई।
- (iii) 1977 के चुनावों को जनता पार्टी ने आपातकाल के ऊपर जनमत संग्रह का रूप दिया। इस पार्टी ने चुनाव प्रचार में शासन के अलोकतांत्रिक चरित्र और आपातकाल के दौरान की गई ज्यादतियों पर जोर दिया।
- (iv) हजारों लोगों की गिरफ्तारी और प्रेस की सेंसरशिप की पृष्ठभूमि में जनमत कांग्रेस के विरुद्ध था। जनता पार्टी के गठन के कारण यह भी सुनिश्चित हो गया कि गैर-कांग्रेसी वोट एक ही जगह पड़ेंगे। बात बिल्कुल साफ थी कि कांग्रेस के लिए अब बड़ी मुश्किल आ पड़ी थी।
- (v) जैसी कि उम्मीद की जाती थी वही हुआ । चुनावी परिणामों से स्पष्ट हो गया कि मतदाताओं ने कांग्रेस को नकार दिया था। उसे मात्र 184 सीटें मिलीं। जनता पार्टी और उसके साथी दलों ने 330 सीटें जीत ली। इस प्रकार केन्द्र में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार या विपक्षी सरकार का गठन हुआ।
(क) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर इसका असर
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध
(ग) जनसंचार माध्यमों के कामकाज
(घ) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ
उत्तर
(क) नागरिक अधिकारों की दशा और नागरिकों पर उसका असर- आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत नागरिकों के विभिन्न मौलिक अधिकार निष्प्रभावी हो गए। उनके पास अब यह अधिकार भी नहीं रहा कि मौलिक अधिकारों की बहाली के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाएँ। सरकार ने निवारक नजरबंदी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया। इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को गिरफ्तार इसलिए नहीं किया जाता कि उन्होंने कोई अपराध किया है बल्कि इसके विपरीत, इस प्रावधान के अंतर्गत लोगों को इस आशंका से गिरफ्तार किया जाता कि वे कोई अपराध कर सकते हैं। सरकार ने आपातकाल के दौरान निवारक नजरबंदी अधिनियमों का प्रयोग करके बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियाँ कीं। जिन राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया वे बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका का सहारा लेकर अपनी गिरफ्तारी को चुनौती भी नहीं दे सकते थे।
(ख) कार्यपालिका और न्यायपालिका के संबंध- आपातकाल के बाद कार्यपालिका तथा न्यायपालिका के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न हुए। इंदिरा गाँधी ने कार्यपालिका या संसद की सर्वोच्चता का हवाला देते हुए कई संविधान संशोधनों की योजना बनाई लेकिन इनमें से अधिकांश को उच्चतम न्यायालय ने निष्फल कर दिया।
(ग) जनसंचार माध्यमों के कामगाज- आपातकाल का जनसंचार माध्यमों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ा। आपातकालीन प्रावधानों के अंतर्गत प्राप्त अपनी शक्तियों पर अमल करते हुए सरकार ने प्रेस की आजादी पर रोक लगा दी। जनसंचार माध्यमों का कामकाज बाधित हुआ। समाचार-पत्रों को कहा गया कि कुछ भी छापने से पहले अनुमति लेनी जरूरी है। इसे प्रेस सेंसरशिप के नाम से जाना जाता है। 'इंडियन एक्सप्रेस' और 'स्टेट्समैन' जैसे अखबारों ने प्रेस पर लगी सेंसरशिप का विरोध | किया। जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था उनकी जगह ये अखबार खाली छोड़ देते थे । 'सेमिनार' और 'मेनस्ट्रीम' जैसी पत्रिकाओं ने सेंसरशिप के आगे घुटने टेकने की जगह बंद होना मुनासिब समझा।
(घ) पुलिस और नौकरशाही की कार्रवाइयाँ- पुलिस की ज्यादतियाँ बढ़ गईं। पुलिस हिरासत में कई लोगों की मौत हुई। | नौकरशाही मनमानी करने लगी। बड़े अधिकारी समय की पाबंदी और अनुशासन के नाम से तानाशाही नजरिए से हर मामले में मनमानी करने लगे। पुलिस और नौकरशाही ने जबरदस्ती परिवार नियोजन को थोपा । बिना किसी कानून-कायदे के ढाँचे गिराए गए। रिश्वतखोरी बढ़ गई।
उत्तर
भारतीय दलीय प्रणाली पर आपातकाल का प्रभाव- आपातकाल के भारतीय दलीय प्रणाली पर कई प्रभाव पड़े जिनमें से प्रमुख प्रभाव निम्नलिखित हैं-
- दलीय व्यवस्था में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का विकास हुआ उन्हें यह विश्वास हो गया कि यदि विपक्षी दलों ने अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उन्हें आपस में मिलकर कांग्रेस का मुकाबला करना जरूरी है।
- आपातकाल के बाद सभी विपक्षी दलों ने यह निश्चय किया कि आने वाले चुनाव में गैर-कांग्रेसी वोट बिखरने नहीं चाहिए। यदि गैर-कांग्रेसी वोट बिखर गए तो कांग्रेस को सत्ता से हटाना कठिन होगा।
- आपातकाल के बाद देश में जनता पार्टी का गठन हुआ जिसमें सभी प्रमुख दलों ने सम्मिलित होना स्वीकार किया और अपने स्वतंत्र अस्तित्व तथा अलग पहचान को समाप्त करके एक दल बनाने पर सहमत हुए। कई लेखक. 1977 को भारतीय दलीय प्रणाली में दो दलीय व्यवस्था के आरंभ को देखते हैं। उनका ऐसा विचार था कि अब देश में दो दलीय व्यवस्था | विकसित होगी। परन्तु यह बात सत्य नहीं निकली और जनता पार्टी शीघ्र ही बिखर गई।
- आपातकाल के बाद कांग्रेस जो अपने को असली कांग्रेस कहती थी उसमें भी विभाजन हुआ। इसके कई नेता जो आपातकाल के समर्थक नहीं थे परन्तु आपातकाल में विरोध प्रकट करने का साहस नहीं कर सके थे, आपातकाल के बाद बाबू जगजीवन राम के नेतृत्व में कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने कांग्रेस फार डेमोक्रेसी नामक अपना अलग दल बना लिया।
- आपातकाल के बाद सभी दल जनमत की परिपक्वता में विश्वास करने लगे और पिछड़े वर्गों की भलाई की नीति लगभग सभी दलों ने अपनाई ।
- आपातकाल के बाद कई राज्यों में भी विपक्षी दलों ने एकजुट होकर कांग्रेस का मुकाबला किया और कई राज्यों में विधान सभा चुनावों में उन्होंने आपस में मिलकर चुनाव लड़कर कांग्रेस को सत्ताहीन किया। दलीय व्यवस्था में गैर कांग्रेसवाद की राजनीति का विकास हुआ उन्हें यह विश्वास हो गया कि यदि विपक्षी दलों ने अपना अस्तित्व बनाए रखना है तो उन्हें आपस में मिलकर कांग्रेस का मुकाबला करना जरूरी है।
1977 के चुनावों के दौरान भारतीय लोकतंत्र, दो-दलीय व्यवस्था के जितना नजदीक आ गया था उतना पहले कभी नहीं आया। बहरहाल अगले कुछ सालों में मामला पूरी तरह बदल गया। हारने के तुरंत बाद कांग्रेस दो टुकड़ों में बँट गई जनता पार्टी में भी बड़ी अफरा-तफरी मची....... डेविड बटलर, अशोक लाहिड़ी और प्रणव रॉय
-पार्थ चटर्जी
(क) किन वज्रहों से 1977 में भारत की राजनीति दो दलीय प्रणाली के समान जान पड़ रही थी?
(ख) 1977 में दो से ज्यादा पार्टियाँ अस्तित्व में थीं। इसके बावजूद लेखकगण इस दौर को दो-वलीय प्रणाली के नज़दीक क्यों बता रहे हैं?
(ग) कांग्रेस और जनता पार्टी में किन कारणों से टूट पैदा हुई?
उत्तर
(क) 1977 में भारत की राजनीति दो दलीय प्रणाली इसलिए जान पड़ रही थी क्योंकि सभी कांग्रेस के विरोधी दल जय प्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति या जनता पार्टी में शामिल हो गए और दूसरी ओर कांग्रेस उनकी विरोधी थी।
(ख) लेखकगण इस दौर को दो दलीय प्रणाली के नजदीक इसलिए बता रहे हैं क्योंकि कांग्रेस कई टुकड़ों में बँट गई और जनता पार्टी में भी फूट हो गई परन्तु फिर भी इन दोनों प्रमुख पार्टियों के नेता संयुक्त नेतृत्व और साझे कार्यक्रम तथा नीतियों की बात करने लगे। इन दोनों गुटों की नीतियाँ एक जैसी थीं। दोनों में बहुत कम अंतर था। वामपंथी मोर्चे में सी.पी.एम. सी.पी.आई. फॉरवर्ड ब्लॉक, रिपब्लिकन पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों को हम इसने अलग मान सकते हैं।
(ग) 1977 में आपातकाल की समाप्ति की घोषणा के बाद कांग्रेस में विभाजन हुआ। कांग्रेस के बहुत से नेता आपातकाल की घोषणा के समर्थक नहीं थे। वे आपातकाल में हुई ज्यादतियों के विरुद्ध थे। परन्तु आपातकाल में विरोध प्रकट नहीं कर सकते थे। 1977 में ऐसे नेता बाबू जगजीवन राम जो दलित नेता समझे जाते थे और सदैव ही कांग्रेस मंत्रिमंडल में रहे थे, के नेतृत्व में कांग्रेस से अलग हो गए और उन्होंने अपना कांग्रेस फार डेमोक्रेसी नामक दल बनाया। फिर वे जनता पार्टी में शामिल हो गए।
जनता पार्टी में फूट इसके गठन के एक वर्ष बाद ही पड़ गई थी। इसमें फूट के कई कारण थे। यह पार्टी विभिन्न विचार-धाराओं के समर्थकों ने लोकतंत्र बचाओं तथा गैरकांग्रेसवाद के आधार पर गठित की थी। इसका कोई सांझा कार्यक्रम नहीं था। इसमें सत्ता की प्राप्ति के लिए आपसी संघर्ष हुआ। इसके घटक भावनात्मक एकीकरण की स्थिति प्राप्त नहीं कर सके। प्रत्येक घटक का नेता अपने को ही सर्वेसर्वा मानता था। इसके घटक शीघ्र ही इसे छोड़कर चले गए। 1979 में चौधरी चरण सिंह, राजनारायण, बीजू पटनायक, जॉर्ज फर्नाडिस, मधुलिमये के नेतृत्व में लगभग एक तिहाई सदस्य इससे अलग हो गए और अपना दल जनता सैक्यूलर बना दिया। फिर पुराने जनसंघ वाले नेता इससे अलग हुए और उन्होंने अपना अलग दल भारतीय जनता पार्टी बना लिया। चरणसिंह आदि के अलग होने के कारण मोरारजी देसाई ने मंत्रिमंडल से त्यागपत्र दे दिया। चरणसिंह के प्रधानमंत्रित्व में, कांग्रेस के बाह्य समर्थन से नया मंत्रिमंडल बना। परन्तु कांग्रेस ने शीघ्र ही साथ छोड़ दिया। चरण सिंह को भी त्यागपत्र देना पड़ा और 1980 में लोकसभा के नए चुनाव हुए।