NCERT Solutions for Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति Class 12 Political Science
एन.सी.आर.टी. सॉलूशन्स for Chapter 3 नियोजित विकास की राजनीति Class 12 स्वतंत्र भारत में राजनीति-II
अभ्यास
प्रश्न 1. 'बॉम्बे प्लान' के बारे में निम्नलिखित में कौन-सा बयान सही नहीं है।
(क) यह भारत के आर्थिक भविष्य का एक ब्लू-प्रिंट था।
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
(ग) इसकी रचना कुछ अग्रणी उद्योगपतियों ने की थी ।
(घ) इसमें नियोजन के विचार का पुरजोर समर्थन किया गया था ।
उत्तर
(ख) इसमें उद्योगों के ऊपर राज्य के स्वामित्व का समर्थन किया गया था।
प्रश्न 2. भारत ने शुरुआती दौर में विकास की जो नीति अपनाई उसमें निम्नलिखित में से कौन-सा विचार शामिल नहीं था?
(क) नियोजन
(ख) उदारीकरण
(ग) सहकारी खेती
(घ) आत्मनिर्भरता
उत्तर
(ख) उदारीकरण
(क) बॉम्बे प्लान से
(ख) सोवियत खेमे के देशों के अनुभवों से
(ग) समाज के बारे में गाँधीवादी विचार से
(घ) किसान संगठनों की माँगों से
(क) सिर्फ़ ख और घ
(ख) सिर्फ़ क और ख
(ग) सिर्फ़ घ और ग
(घ) उपर्युक्त सभी
उत्तर
(घ) उपर्युक्त सभी।
(क) चरण सिंह |
(i) औद्योगीकरण |
(ख) पी.सी. महालनोबिस |
(ii) जोनिंग |
(ग) बिहार का अकाल |
(iii) किसान |
(घ) वर्गीज कुरियन |
(iv) सहकारी डेयरी |
उत्तर
(क) चरण सिंह |
(iii) किसान |
(ख) पी.सी. महालनोबिस |
(i) औद्योगीकरण |
(ग) बिहार का अकाल |
(ii) जोनिंग |
(घ) वर्गीज कुरियन |
(iv) सहकारी डेयरी |
उत्तर
आजादी के समय विकास के प्रश्न पर प्रमुख मतभेद निम्नलिखित थे-
विकास के क्षेत्र में आर्थिक समृद्धि हो और सामाजिक न्याय भी मिले इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार कौन - सी भूमिका निभाए? इस सवाल पर मतभेद थे। क्या कोई ऐसा केन्द्रीय संगठन जरूरी है जो पूरे देश के लिए योजना बनाए? क्या सरकार को कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योग और व्यवसाय खुद चलाने चाहिए? अगर सामाजिक न्याय आर्थिक संवृद्धि की जरूरतों के आड़े आता हो तो ऐसी सूरत में सामाजिक न्याय पर कितना जोर देना उचित होगा?
इनमें से कुछ प्रश्नों को आंशिक तौर पर सुलझा लिया गया, परंतु कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिन्हें अभी भी सुलझाना बाकी है। कुछ सुलझे हुए मतभेद निम्न प्रकार से है।
- सभी विचार धारा के नेतागण और राजनैतिक दल आर्थिक समृद्धि और आर्थिक, सामाजिक दोनों तरह की बात करते हैं। कुछ सुलझे हुए मतभेद निम्न प्रकार से है।
- सभी इस बात पर सहमत हैं कि देश के व्यापार, उद्योगों और कृषि को क्रमशः व्यापारियों, उद्योगपतियों और किसानों के भरोसे पूरी तरह नहीं छोड़ा जा सकता।
- सरकार ने सन् 1947 से लेकर 1990 के दशक के शुरू होने से पहले आर्थिक विकास में प्रमुख भूमिका निभाई लेकिन 1990 के दशक से आज तक हम यह कह सकते हैं कि मिश्रित नीति छोड़ दी गई है और देश में नई आर्थिक नीति अपनाई जा रही है लेकिन नियोजन की नीति को छोड़ा नहीं गया। अब भी कई महत्त्वपूर्ण उद्योगों पर सरकार का एकाधि कार है। जैसे रेलवे उद्योग, लेकिन धीरे-धीरे अनेक उद्योगों में सहकारी हिस्सों को बेचा जा रहा है और उदारीकरण और वैश्वीकरण के अंतर्गत देशी और विदेशी पूँजीपतियों, कंपनियों के हिस्से और निवेश को निरंतर बढ़ाया जा रहा है।
उत्तर
पहली पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल 1951 से लागू होकर 31 मार्च 1956 को समाप्त हुई। इस योजना में लोगों को गरीबी के जाल से निकालने का लक्ष्य था। इस योजना में ज्यादा जोर कृषि क्षेत्र पर दिया गया। इस योजना में भूमि सुधार पर जोर दिया गया और उसे देश के विकास की बुनियादी चीज माना गया। इस योजना के अन्तर्गत अनेक बाँध बनाए गए और सिंचाई के क्षेत्र में काफी धनराशि का निवेश किया गया।
दूसरी पंचवर्षीय योजना पहली पंचवर्षीय योजना से विभिन्न अर्थों में अलग थी।
- पहला अंतर यह था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में भारी उद्यागों के विकास पर जोर दिया गया। सरकार ने देसी उद्योगों को संरक्षण देने के लिए आयात पर भारी शुल्क लगाया। संरक्षण की इस नीति से निजी और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों को आगे बढ़ने में काफी मदद मिली।
- दोनों योजनाओं में दूसरा अंतर यह था कि पहली योजना में विकास की गति को धीमा रखा गया था। यह समझा गया था कि एक दशक तक विकास की रफ्तार धीमी रखी जाए नहीं तो वह अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव डालेगी। परन्तु दूसरी योजना में विकास की गति को तेज रखा गया और यह कोशिश की गई थी कि तेज गति से संरचनात्मक बदलाव किया जाए।
- पहली योजना में कुल 2378 करोड़ रुपए के व्यय की व्यवस्था की गई थी जबकि दूसरी योजना के अंतर्गत 4500 करोड़ रुपए की व्यवस्था की गई थी।
- प्रथम पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत राष्ट्रीयकरण की प्रक्रिया धीमी थी और अधिक क्षेत्रों में इसे लागू नहीं किया गया था। परन्तु दूसरी पंचवर्षीय योजना में बिजली, रेलवे, इस्पात, मशीनरी, संचार आदि उद्योगों का राष्ट्रीयकरण किया गया और आर्थिक क्षेत्र में राज्य का नियंत्रण बढ़ा।
उत्तर
सरकार ने खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कृषि की एक नई रणनीति अपनाई। नई रणनीति के अंतर्गत सरकार ने उन क्षेत्रों पर अधिक ध्यान दिया जो पहले से कृषि योग्य थे, सिंचाई की सुविधाएँ थीं, जहाँ खेती पहले से ही उपज देती थी। वहाँ संसाधन दिए गए और खेती की उपज में वृद्धि करने वाले संसाधन जैसे कि अच्छे बीज, रसायनिक खाद, (फर्टीलाइजर), कीटनाशक आदि वस्तुओं को रियायती दरों पर उपलब्ध कराया गया। ट्रैक्टर आदि खरीदने के लिए रियायती दरों पर ऋण की व्यवस्था की गई। सिंचाई की सुविधाओं में बढ़ोतरी के कदम उठाए गए, किसानों को नलकूप लगाने के लिए प्रोत्साहित किया गया। रियायती दरों पर बिजली की आपूर्ति की गई। ये रियायतें केवल छोटे किसानों को ही नहीं बल्कि बड़े किसानों तथा भूपतियों को भी दी गईं। इतना ही नहीं सरकार ने किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य दिलवाए जाने का भी आश्वासन दिया और खाद्यान्नों के निम्नतम मूल्य निर्धारित किए। किसानों को निम्नतम मूल्यों के बाद बोनस दिए जाने की नीति अपनाई गई और उपज का विशेषकर गेहूँ और चावल की सरकारी खरीद (अथवा सरकार द्वारा खरीद किए जाने और उन्हें सरकारी गोदामों में स्टाक किए जाने) का कदम भी उठाया। इन बातों ने छोटे-बड़े सभी किसानों को अधिक से अधिक उपज उगाने और अनाज की मात्रा में वृद्धि करने के लिए प्रेरित किया। इसी को 'हरित क्रांति' का नाम दिया गया।
हरित क्रांति के सकारात्मक परिणाम:
इन प्रयासों के अच्छे परिणाम निकले और देश में अनाज की फसल में इतनी बढ़ोत्तरी हुई कि 1970 के दशक को हरितक्रांति का दशक बताया जाता है क्योंकि चारों तरफ लहलहाती फसल के कारण हरियाली ही हरियाली दिखाई देती थी। हरितक्रांति से अधिकतर गेहूँ और चावल की फसल वृद्धि हुई। देश को खाद्यान्नों के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता प्राप्त हुई।
हरित क्रांति के बहुत से अच्छे परिणाम निकले जो स्वाभाविक भी थे।
- भारत को खाद्यान्न के मामले में आत्म निर्भरता प्राप्त हुई और अब वह इनका आयात करने की अपेक्षा निर्यात करने की स्थिति में आ गया।
- ग्रामीण जीवन में खुशहाली आई और ग्रामीण लोगों की प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि हुई।
- खाद्यान्नों के आयात से जो विदेशी पूंजी खर्च दोती थी और देश पर विदेशी दबाव पड़ता था उसमें बहुत कमी आई।
- खाद्यान्नों के आयात के स्थान पर भारत को औद्योगीकरण के लिए विदेशी प्रौद्योगिकी तथा मशीनरी को प्राप्त करने में कम कठिनाई आई जिसने औद्योगीकरण की प्रक्रिया को तेज किया।
- भारत के कुछ राज्य या क्षेत्र कृषि उत्पादन के लिए प्रसिद्ध हुए जैसे कि पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश और इसके कारण वहाँ के किसान आर्थिक दृष्टि से समृद्ध हुए।
- किसान वर्ग की राजनीतिक व्यवस्था में स्थिति मजबूत हुई और उसकी राजनीतिक शक्ति में भागीदारी बढ़ी। परन्तु हरित क्रांति के कुछ नकारात्मक प्रभाव या बुरे परिणाम भी निकले।
हरित क्रांति के नकारात्मक परिणाम-
- हरित क्रांति से धनी किसान और धनी हुए तथा मध्यम वर्गीय किसानों को भी लाभ हुआ और उनकी आर्थिक दशा में वृद्धि हुई। परन्तु आम किसान और कृषि मजदूरों को इसका विशेष लाभ नहीं हुआ।
- हरित क्रांति ने ग्रामीण क्षेत्र में अमीर-गरीब के बीच को खाई को चौड़ा किया।
- उसने क्षेत्रीय असंतुलन में वृद्धि की क्योंकि कुछ राज्य अन्य राज्यों तथा क्षेत्रों के मुकाबले अधिक अमीर और समृद्ध हो गए।
- हरित क्रांति ने कई क्षेत्रों में वामपंथी दलों की गतिविधियों को तेज करने में भूमिका निभाई क्योंकि उन्हें गरीब किसानों | तथा खेतिहर मजदूरों को भूस्वामियों के विरुद्ध भड़काने और उन्हें लामबंद करने का अवसर मिला। खेती की दृष्टि से पिछड़े| प्रदेशों में नक्सलवादी गतिविधियाँ तेज हुईं।
उत्तर
दूसरी पंचवर्षीय योजना के दौरान औद्योगिक विकास और कृषि विकास के बीच चले विवाद में निम्नलिखित तर्क दिए गए थे-
- उद्योग और कृषि में से किस क्षेत्र में ज्यादा संसाधन लगाए जाएँ।
- अनेक लोगों का मानना था कि दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि के विकास की रणनीति का अभाव था और इस योजना के दौरान उद्योगों पर जोर देने के कारण खेती और ग्रामीण इलाकों को चोट पहुँची।
- जे.सी. कुमारप्पा जैसे गाँधीवादी अर्थशास्त्रियों ने एक वैकल्पिक योजना का खाका प्रस्तुत किया था जिसमें ग्रामीण औद्योगिकरण पर ज्यादा जोर था। चौधरी चरण सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में कृषि को केन्द्र में रखने की बात बड़े सुविचारित और दमदार ढंग से उठायी थी।
- चौधरी चरण सिंह कांग्रेस पार्टी में थे और बाद में उससे अलग होकर इन्होंने भारतीय लोकदल नामक पार्टी बनाई। उन्होंने कहा कि नियोजन से शहरी और औद्योगिक तबके समृद्ध हो रहे हैं और इसकी कीमत किसानों और ग्रामीण जनता को चुकानी पड़ रही है।
- कई अन्य लोगों का सोचना था कि औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर को तेज किए बगैर गरीबी के मकड़जाल से छुटकारा नहीं मिल सकता। इन लोगों का तर्क था कि भारतीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में खाद्यान्न के उत्पादन को बढ़ाने की रणनीति अवश्य ही अपनायी गई थी। राज्य ने भूमि सुधार और ग्रामीण निर्धनों के बीच संसाधन के बँटवारे के लिए कानून बनाए।
- नियोजन में सामुदायिक विकास के कार्यक्रम तथा सिंचाई परियोजनाओं पर बड़ी रकम खर्च करने की बात मानी गई थी। नियोजन की नीतियाँ असफल नहीं हुई। दरहसल इनका कार्यान्वयन ठीक नहीं हुआ क्योंकि भूमि संपन्न तबके के पास सामाजिक और राजनीतिक ताकत ज्यादा थी। इसके अतिरिक्त, ऐसे लोगों की एक दलील यह भी थी कि यदि सरकार कृषि पर ज्यादा धनराशि खर्च करती तब भी ग्रामीण गरीबी की विकराल समस्या का समाधान न कर पाती।
उत्तर
पक्ष में तर्क-
- अर्थव्यवस्था में राज्य की भूमिका पर जोर देकर भारतीय नीति-निर्माताओं ने बड़ी भारी गलती की। 1990 से ही भारत ने नई आर्थिक नीति अपना ली है और वह बड़ी तेजी से उदारीकरण तथा वैश्वीकरण की ओर बढ़ रहा है। देश के अनेक बड़े नेता जो दुनिया के जाने-माने अर्थशास्त्री भी हुए हैं, ये भी निजी क्षेत्र उदारीकरण और सरकारी हिस्सेदारी को जल्दी से जल्दी सभी व्यवसायों, उद्योगों आदि में समाप्त करना चाहते हैं।
- दुनिया की दो बड़ी संस्थाओं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोप और विश्व बैंक से भारत को तभी ऋण और ज्यादा से ज्यादा निवेश मिल सकते हैं जब बहुराष्ट्रीय कपनियाँ, विदेशी निवेशकों का स्वागत हो और उद्योगों के विकास के लिए आतंरिक सुविधाओं का बड़े पैमाने पर सुधार हो । इन सबके लिए सरकार पूँजी नहीं जुटा सकती। यह कार्य अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएँ, बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और बड़े-बड़े पूँजीपति लोग कर सकते हैं जो बड़ी-बड़ी जोखिम उठाने के लिए तैयार हैं।
- अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगिता में भारत तभी ठहर सकता है जब नीति क्षेत्र को छूट दे दी गई होती।
विपक्ष में तर्क-
- वामपंथी विचारधारा के समर्थक और जो सार्वजनिक क्षेत्र और सरकारी हिस्से को बढ़ाना चाहते हैं वे तर्क देते हैं कि भारत को सुदृढ़ कृषि और औद्योगिक क्षेत्र में आधार सरकारी वर्चस्व और मिश्रित नीति से मिला है। यदि ऐसा नहीं होता तो भारत पिछड़ा रहता।
- भारत में विकसित देशों की तुलना में जनसंख्या ज्यादा है। यहाँ बेरोजगारी है, गरीबी है, यदि पश्चिमी देशों की होड़ में भारत में सरकारी हिस्से को अर्थव्यवस्था में कम कर दिया जाएगा तो बेरोजगारी बढ़ेगी गरीबी फैलेगी, धन और पूँजी कुछ ही कम्पनियों के हाथों में केन्द्रित हो जाएगी जिससे आर्थिक विषमता और बढ़ जाएगी।
- भारत एक कृषि प्रधान देश है। वह अमेरिका जैसे देशों का कृषि उत्पादन में मुकाबला नहीं कर सकता। कुछ देश स्वार्थ के लिए पेटेंट प्रणाली को कृषि में लागू करना चाहते हैं और जो सहायता राशि सरकार भारतीय किसानों को देती है वे उसे अपने दबाव द्वारा पूरी तरह समाप्त करना चाहते हैं जबकि अपने देश के किसानों को वह हर तरह से आर्थिक सहायता देकर विकासशील देशों को कृषि सहित हर अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में मात देना चाहते हैं।
आजादी के बाद के आरंभिक वर्षों में कांग्रेस पार्टी के भीतर दो परस्पर विरोधी प्रवृत्तियाँ पनपीं। एक तरफ राष्ट्रीय पार्टी कार्यकारिणी ने राज्य के स्वामित्व का समाजवादी सिद्धांत अपनाया, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ-साथ आर्थिक संसाधनों के संकेंद्रण को रोकने के लिए अर्थव्यवस्था के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों का नियंत्रण और नियमन किया। दूसरी तरफ कांग्रेस की राष्ट्रीय सरकार ने निजी निवेश के लिए उदार आर्थिक नीतियाँ अपनाईं और उसके बढ़ावे के लिए विशेष कदम उठाए। इसे उत्पादन में अधिकतम वृद्धि की अकेली कसौटी पर जायज़ ठहराया गया ।
- फ्रैंकिन फ्रैंकल
(क) यहाँ लेखक किस अंतर्विरोध की चर्चा कर रहा है? ऐसे अंतर्विरोध के राजनीतिक परिणाम क्या होंगे?
(ख) अगर लेखक की बात सही है तो फिर बताएँ कि कांग्रेस इस नीति पर क्यों चल रही थी? क्या इसका संबंध विपक्षी दलों की प्रकृति से था?
(ग) क्या कांग्रेस पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व और इसके प्रांतीय नेताओं के बीच भी कोई अंतर्विरोध था?
उत्तर
(क) दिए गए अनुच्छेद में लेखक द्वारा कांग्रेस में उन दो समूहों की चर्चा की गई है जो क्रमशः वामपंथी विचारधारा से और दूसरा पक्ष दक्षिणपंथी विचारधारा से प्रभावित था । इस प्रकार के अंतर्विरोध के राजनीतिक परिणाम देश में टकराव, मोर्चा का गठन, उनके द्वारा हिंसात्मक आंदोलनों को बढ़ावा देना या उन संगठनों को बढ़ावा मिलना जो लोकतंत्र में विश्वास वामपंथी नहीं करते पूर्णतया तय है। पश्चिमी देश विशेषकर पूँजीवादी देश जो उदारवाद, वैश्वीकरण के पक्षधर हैं तथा समाजवाद और कम्युनिस्ट नीतियों के घोर विरोधी हैं, वे भारत में विरोधी राजनीति अपनाएँगे।
(ख) लेखक की बात सही है कि कांग्रेस एक ओर पूँजीवादी विरोधी दलों की नीति अपनाकर निजी क्षेत्र को और दूसरी ओर वामपंथी विरोधी दलों की साम्यवादी या समाजवादी नीतियों के अंतर्गत नियोजन, सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देना और राज्य की भूमिका पर बल देने जैसी नीतियाँ नहीं अपना रही थी। इसे कांग्रेस द्वारा मिश्रित आर्थिक नीति का नाम दिया गया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया परन्तु सार्वजनिक क्षेत्र के परिणाम बहुत अच्छे नहीं रहे।
(ग) कांग्रेस पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व और इसके प्रांतीय नेताओं के बीच खुलकर कोई अंतर्विरोध नहीं था परन्तु यह स्पष्ट था कि दबी जुबान में अनेक प्रांतों ने सरकारीकरण का विरोध किया। कई प्रांतों में कांग्रेस के कई नेताओं ने अपनी पार्टी छोड़कर अलग से अपनी नई पार्टी बना ली। चरणसिंह ने भारतीय क्रांति दल और फिर लोकदल बनाया। मोरारजी देसाई पूँजीवादी नीतियों का खुलेआम समर्थन करते थे। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने समाजवादी पार्टी का गठन किया। उड़ीसा में बीजू पटनायक ने उत्कल कांग्रेस का गठन किया।